गुलाब के गुस्से का पार न था। खीची उसके साथ ऐसा खेल खेलेगा, इसकी आशा उसे न थी। यह जानते हुए भी कि प्रतापसिंह, पासवान का समधी था, खीची ने प्रतापसिंह के पुराने वैरी जगतसिंह को सेना देकर उसके पीछे भेजा और मरवा डाला! भीतर तक तिलमिलाई हुई गुलाब ने निर्णय लिया कि खीची से वह बाद में निबटेगी, पहले जगतसिंह को निबटाया जाये। उसने अपने मन की बात महाराजा के विश्वस्त मुत्सद्दी खूबचंद सिंघवी से कही। खूबचंद को पासवान का यह विचार अच्छा नहीं लगा। वह महाराजा का शुभचिंतक था, उसने पासवान को सलाह दी कि इस सम्बन्ध में जोरावरमल से भी विचार विमर्श किया जाये।
जोरावारमल सिंघवी, पासवान का विश्वस्त आदमी था। वही गुलाबराय को द्वारिका की यात्रा करवाकर लाया था। जोरावरमल गुलाब का प्रस्ताव सुनकर हैरान रह गया। खूबचंद और जोरावरमल ने मिलकर पासवान को सलाह दी कि इस काम को नहीं किया जाये। प्रजा में तथा सामंतों में अच्छा संदेश नहीं जायेगा। पहले ही देवीसिंह, केसरीसिंह तथा छत्रसिंह महाराज की कैद में मारे जा चुके हैं, यदि और किसी सरदार की हत्या हुई तो सामंतों और मुत्सद्दियों में महाराज तथा पासवान के विरुद्ध वातावरण बनेगा।
बदले की आग में जल रही गुलाब को इन दोनों मुत्सद्दियों की राय अच्छी नहीं लगी। उसने दोनों को जमकर फटकारा और स्पष्ट कह दिया कि मैं तो यह काम करके रहूँगी, भले ही तुम दोनों मेरा साथ दो या मत दो। खूबचंद तो पासवान को क्रोधित होते देखकर वहाँ से खिसक लिया किंतु जोरावरमल ने बुझे हुए मन से, पासवान का साथ देने का वचन दे दिया। गुलाब ने खूबचंद के स्थान पर भीमराज सिंघवी को अपनी योजना में मिला लिया। तीसरे कान में बात जाते ही यह योजना फूट गई और जगतसिंह को भी सारी बातें ज्ञात हो गईं।
यदि मानव सभ्यता के किसी युग में यह कहावत सर्वाधिक सही ठहरी है कि दीवारों के भी कान होते हैं तो वह युग राजाओं और रजवाड़ांे का ही था। उसके बाद तो न वे दीवारें रहीं और न वे कान ही रहे। जब पासवान के कहने से महाराज ने जगतसिंह को दरबार में हाजिर होकर मुजरा करने के आदेश दिये तब जगतसिंह सतर्क हो गया और महाराज के समक्ष उपस्थित होने के स्थान पर चुपचाच दुर्ग से बाहर निकल कर भाग गया और बाखासर पहुँच कर अपनी गढ़ी में आत्मरक्षार्थ तैयारी करके बैठ गया। जगतसिंह द्वारा महाराजा की अनुमति के बिना दुर्ग त्यागने की कार्यवाही को राजाज्ञा का उल्लंघन माना गया। इसलिये पासवान ने मारवाड़ की आठों मिसलों के ठाकुरों को दरबार में बुलाकर आदेश दिया कि आप लोग भीमराज सिंघवी और जोरावरमल के साथ अपनी-अपनी सेनायें लेकर बाखासर पर चढ़ाई करें तथा जगतसिंह को बंदी बनाकर महाराजा के समक्ष प्रस्तुत करें।
जिस समय गुलाब ने आठों मिसलों के सरदारों को यह आदेश दिया, उस समय मरुधरानाथ भी दरबार में उपस्थित था। सरदारों ने राजाज्ञा पाने के लिये महाराजा की ओर देखा किंतु महाराजा नेत्र बंद करके मौन बैठा रहा। महाराजा की मौन स्वीकृति पाकर आठों मिसलों के सरदारों ने भारी मन से पासवान के आदेश को स्वीकार कर लिया और बाखासर की ओर कूच कर गये। भीमराज सिंघवी और जोरावरमल ने बाखासर पहुँच कर गढ़ी को घेर लिया।
ठाुकर जगतसिंह को यह तो अनुमान था कि जोधपुर से सेना आयेगी किंतु एक साथ आठों मिसलों के सरदारों को देखकर वह भौंचक्का रह गया। उसे स्वप्न में भी अंदेशा नहीं था कि दरबार की तरफ से उसके विरुद्ध ऐसी कठोर कार्यवाई की जायेगी। आठों मिसलों के सरदारों की ओर से सिंघवी भीमराज और जोरावरमल ने ठाकुर को संदेश भिजवाया कि यदि प्रसन्नता पूर्वक जोधपुर चलकर दरबार के समक्ष मुजरा करने को तैयार हो तो तुम्हारे ऊपर सैनिक कार्यवाही नहीं की जायेगी।
ठाकुर ने जो जवाब भिजवाया, उससे न केवल सिंघवी भीमराज और जोरावरमल अपितु आठों मिसलों के सरदार भीतर तक काँप गये। ठाकुर ने कहलावाया कि जिस राज्य का राजा अपनी पासवानों के तलुए चाटता हो, उस राजा को मुजरा करने से अच्छा तो सम्मुख रण में कट मरना है। मेरी नेक सलाह है कि आप सब सरदार भी ऐसे राजा की चाकरी बजाना छोड़कर राठौड़ों के इस महान राज्य को बचाने के लिये कोई दूसरा उपाय सोचें। रही सैनिक कार्यवाही की बात, तो उसके लिये मैं किसी भी समय तैयार हूँ।
ठाकुर जगतसिंह का जवाब पाकर आठों मिसलों के ठाकुरों ने दृष्टि नीची कर ली। वे परस्पर एक दूसरे की आँखों में झांकने का साहस नहीं कर सके। जाने क्यों उन्हें बार-बार यही अनुभव हो रहा था कि जगतसिंह की बात में आंशिक ही सही, सच्चाई अवश्य है। ठाकुरों की चुप्पी लम्बी खिंच गई, कोई कुछ नहीं बोला। अंत में भीमराज सिंघवी ने ही चुप्पी तोड़ी और सेना को गढ़ी पर बलपूर्वक अधिकार कर लेने का आदेश दिया। उस समय संध्या होने में केवल दो घड़ी का समय शेष था।
जब जोधपुर की सेना बाखासर की गढ़ी पर गोलियाँ चलाने लगी तो उधर से जगतसिंह ने भी मोर्चा संभाला। अंधेरा गहराने तक दोनों ओर से बराबर गोलियाँ चलती रहीं। भीमराज सिंघवी की हैरानी का पार न था। उसका अनुमान था कि गढ़ी पर अधिकार करने में दो घड़ी से अधिक समय नहीं लगेगा। इसलिये वह जोधपुर से अपने साथ तोपें लेकर नहीं आया था। तोपें साथ लेने में यह कठिनाई भी थी कि उनको यहाँ तक आने में इतना समय लग जाता कि सूचना मिलने पर जगतसिंह गढ़ी छोगड़कर भाग जाता। तोपें नहीं लाने का एक कारण यह भी था कि उसे पासवान ने सख्त निर्देश दिये थे कि किसी भी स्थिति में जगतसिंह को जीवित ही पकड़कर लाया जाये। उसे गढ़ी में घेर कर मारा न जाये किंतु जगतसिंह द्वारा की जा रही इस गोलाबारी का जवाब तो तोपों से ही दिया जा सकता था। इसलिये भीमसिंह के माथे पर चिंता की रेखायें उभर आईं।
जब पूरी तरह अंधेरा हो गया तो सिंघवी भीमसिंह ने गोलीबारी बंद करवा दी। ठाकुर जगतसिंह की ओर से भी गोलियाँ चलानी बंद कर दी गईं। लगभग ढाई घड़ी तक चली गोलीबारी में भीमराज सिंघवी के कई आदमी मारे गये थे जबकि गढ़ी के भीतर स्थित एक भी आदमी को चोट तक नहीं आई थी।