सात वर्षीय चौहान राजकुमार लोत खलीफा की सेना से लड़ा! भारत के इतिहास की यह खौफनाक घटना आठवीं शताब्दी ईस्वी में हुई जब खलीफा की सेनाओं ने भारत पर इतिहास का क्रूरतम आक्रमण किया।
चौहान शासक गोविंदराज (प्रथम) पहला चौहान राजा था जिसने भारत पर चढ़ कर आई अरब के खलीफा की सेना से युद्ध करके उसे परास्त किया तथा उसके सेनापति सुल्तान बेग वारिस को बंदी बनाया।
गोविंदराज (प्रथम) के बाद दुर्लभराज (प्रथम) अजमेर का राजा हुआ। अनेक ग्रंथों में इसे दुर्लभराय, दूल्हराय तथा दूलाराय भी कहा गया है। वह प्रतिहारों के अधीन शासन करता था।
जब प्रतिहार शासक वत्सराज ने बंगाल के शासक धर्मपाल पर चढ़ाई की तब दुर्लभराज, प्रतिहारों के सेनापति के रूप में इस युद्ध में सम्मिलित हुआ। उसने बंगाल की सेना को परास्त करके अपना झण्डा बंगाल तक लहरा दिया। दुलर्भराय का गौड़ राजपूतों से भी संघर्ष हुआ। चौहान शासक दुर्लभराज पहला राजा था जिसके समय में अजमेर पर मुसलमानों का सर्वप्रथम आक्रमण हुआ।
दुर्लभराय एक पराक्रमी राजा था तथा वह बहुत कम आयु में राजगद्दी पर बैठा था किंतु चौहानों की आंतरिक कलह के कारण उसके कुल के बहुत से राजकुमार एवं सामंत राजा दुर्लभराय से रुष्ट थे।
दुर्लभराज (प्रथम) के शासन काल में ई.724 के लगभग खलीफा वली अब्दुल मलिक की सेना व्यापारियों के वेष में सिंध के मार्ग से अजमेर तक चढ़ आई। मुस्लिम सेना का यह आक्रमण अत्यंत भयानक था। इस युद्ध में प्रमुख चौहान सामंतों ने राजा दुर्लभराज का साथ नहीं दिया। इस कारण दुर्लभराज के परिवार के प्रत्येक पुरुष ने युद्ध में तलवार लेकर शत्रु का सामना किया तथा चौहान रानियों ने तारागढ़ दुर्ग में जौहर का आयोजन किया।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार अजमेर दुर्ग पर यह आक्रमण ई.724 से ई.726 के बीच, अब्दुल रहमान अल मारी के पुत्र जुनैद के नेतृत्व में हुआ जो खलीफा हाशम के अधीन सिंध का कमाण्डर था। खलीफा हाशम का काल ई.724 से ई.743 माना जाता है।
इस युद्ध में राजा दुर्लभराज (प्रथम) का सात वर्षीय पुत्र लोत एक तीर लग जाने से वीर गति को प्राप्त हुआ। सात वर्ष का वह बालक शस्त्र लेकर युद्ध भूमि में लड़ा। इस घटना ने उन चौहानों को बहुत प्रभावित किया जो अजमेर के युवा राजा दूलाराय की अवज्ञा कर रहे थे।
जिस दिन राजकुमार लोत वीरगति को प्राप्त हुआ, उस दिन को पवित्र दिन माना गया तथा राजकुमार लोत की प्रतिमा बनाकर देवताओं की तरह पूजी गई। लोत का निधन ज्येष्ठ माह की द्वादशी को सोमवार के दिन हुआ।
राजा दुर्लभराज की भी युद्धक्षेत्र में ही हत्या कर दी गई। इस प्रकार चौहानों के प्रमुख दुर्ग तारागढ़ पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। राजा दुर्लभराज का छोटा भाई माणक राय अजमेर छोड़कर सांभर भाग गया। उसने संभवतः इस युद्ध में राजा दुर्लभराज का साथ नहीं दिया था। माणकराय सांभर का राजा बन गया। उसने सांभर में शाकम्भरी देवी का मंदिर बनवाया।
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इस सम्बन्ध में पृथ्वीराज रासौ में एक दोहा इस प्रकार मिलता है-
सम्मत सात सौ इकतालीस मालत पाने बीस।
सांभर आया तात सरस माणक राय सर लीस।
अजमेर पर नासिरुद्दीन का शासन हो गया। संभवतः कुछ दिनों बाद मुसलमानों ने सांभर पर भी आक्रमण किया तथा राजा माणिकपाल भी मुसलमानों के हाथों मारा गया। कर्नल टॉड ने मुसलमानों के हाथों माणिकराय की हत्या किए जाने का उल्लेख किया है।
जब स्वर्गीय राजा दुर्लभराज (प्रथम) का पुत्र गूवक बड़ा हुआ तो उसने तारागढ़ पर आक्रमण करके नासिरुद्दीन से अजमेर छीन लिया। कर्नल जेम्स टॉड ने मुलसमानों से अजमेर लेने वाले राजा का नाम हर्षराय लिखा है। वस्तुतः हर्षराय, राजा गूवक की उपाधि थी जो उसने भगवान शिव का हर्ष मंदिर बनवाकर प्राप्त की थी।
चौहान शासक स्वयं को राय कहते थे। गूवक के पिता दुर्लभराज को दूल्हराय तथा चाचा माणिकपाल को माणिकराय कहा जाता था। इसी प्रकार पृथ्वीराज चौहान को राय पिथौरा कहा जाता था।
राजा गूवक, प्रतिहार राजा नागभट्ट का सामंत था। एक शिलालेख में कहा गया है कि राजा दुर्लभराज के पुत्र गूवक को ई.805 में नागावलोक की सभा में सम्मनित किया गया तथा उसे वीर की उपाधि दी गई।
दुर्लभराय के पुत्र गूवक को इतिहास की पुस्तकों में गूवक (प्रथम) भी कहा गया है क्योंकि चौहानों के इतिहास में गूवक नाम के अन्य राजा भी हुए हैं। गूवक के काल में चौहानों की शक्ति में काफी विस्तार हुआ।
उसने अपनी शक्ति के प्रतीक के रूप में भगवान शिव का एक मंदिर बनवाया जिसे हर्ष मंदिर कहा जाता था। भगवान शिव को भी हर्ष कहते हैं तथा उनके एक भैरव अवतार का नाम भी हर्ष है। भगवान हर्ष अजमेर के चौहानों द्वारा पूज्य थे।
राजा गूवक (प्रथम) ने अनंत क्षेत्र में हर्ष का मंदिर बनवाया था। इसी से उसे हर्षराय कहा जाता था। गूवक ने हर्षनाथ मंदिर बनवाया जो कई शताब्दियों तक उत्तर भारत के शिव मंदिरों में महत्वपूर्ण स्थान रखता था। इसलिए गूवक (प्रथम) को हर्षराय भी कहा गया है। हर्षनाथ भगवान शिव के भैरव अवतार माने जाते हैं जो कि चौहानों द्वारा पूज्य थे। यह मंदिर इतना महत्वपूर्ण था कि जिन पहाड़ियों पर यह मंदिर स्थित है, उन्हें हर्ष की पहाड़ियां कहा जाता है।
इस मंदिर से चौहान शासकों के कुछ शिलालेख मिले हैं जिनसे चौहानों के वीर राजवंश की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है। वर्तमान में इस मंदिर के खण्डहर राजस्थान के सीकर जिले में स्थित हैं।
मंदिर से प्राप्त सबसे पुराना अभिलेख ई.956 का है जिसमें तत्कालीन चौहान शासक विग्रहराज का नाम अंकित है। इस मंदिर की मूर्तियां इस पहाड़ी पर बिखरी हुई पड़ी हैं जो चौहानों के बीते हुए काल के वैभव की कहानी कहती हैं।
ई.813 से 833 तक अब्बासिया खानदान का अलमामूं बगदाद का खलीफा हुआ। उसने अपनी सेनाएं भारत पर आक्रमण करने के लिए भेजीं। इस सेना ने चित्तौड़ पर भी आक्रमण किया। उस समय चित्तौड़ पर गुहिल वंशी राजा खुंमाण (द्वितीय) का शासन था। राजा खुमांण ने भारत भर के राजाओं को आमंत्रित किया ताकि सभी आर्य राजा मिलकर म्लेच्छ सेनाओं का प्रतिरोध कर सकें।
राजा खुंमाण की सहायता के लिये काश्मीर से सेतुबंध तक के अनेक राजा चित्तौड़ आये। पुरानी ख्यातों में अजमेर से गौड़ों का तथा तारागढ़ से रैवरों का खुमाण की सहायता के लिये आना लिखा है।
यद्यपि प्राचीन ख्यातों में चौहानों का नाम नहीं मिलता है तथापि चूंकि चौहानों से खलीफाओं की पुरानी शत्रुता चल रही थी, तथा खलीफा के मुस्लिम सेनापतियों ने कुछ समय तक अजमेर पर अधिकार भी रखा था, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि चौहानों की सेनाओं ने भी इस युद्ध में राजा खुमांण की सहायता की।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता