महाराजा रूपसिंह जब वृंदावन से भगवान कल्याणराय का विग्रह लेकर आया था तब से उसकी इच्छा थी कि वह भगवान के इस सुंदर विग्रह को माण्डलगढ़ दुर्ग में प्रतिष्ठित करवाए किंतु बादशाह की बीमारी के कारण उसे दिल्ली से बाहर जाने की अनुमति नहीं मिल पाई थी। अब जबकि बादशाह पूरी तरह ठीक हो गया था महाराजा, उससे अनुमति लेकर भगवान के विग्रह के साथ माण्डालगढ़ के लिए रवाना हो गया।
महाराजा रूपसिंह ने बड़ी धूम-धाम के साथ भगवान कल्याणरायजी को माण्डलगढ़ दुर्ग में ले जाकर स्थापित कर दिया तथा किलेदार राघवदास को जिम्मेदारी दी कि अपने प्राण देकर भी भगवान कल्याणराय को किशनगढ़ वालों से दूर मत होने देना। भगवान की प्रतिष्ठा के समारोह पूरे होने के कुछ दिनों बाद महाराजा पुनः दिल्ली चला आया।
भगवान कल्याणराय को माण्डलगढ़ आए हुए अभी अधिक समय नहीं बीता था कि दिल्ली में बादशाह शाहजहाँ फिर से बीमार पड़ गया। इस बार उसकी बीमारी पहले से भी ज्यादा गंभीर थी। जब मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने शाहजहाँ की बीमारी के बारे में सुना तो उसने माण्डलगढ़ पर आक्रमण कर दिया। माण्डलगढ़ वास्तव में मेवाड़ राज्य का ही बहुत पुराना किला था किंतु अकबर के समय महाराजा मानसिंह ने इस पर अधिकार कर लिया था। हालांकि महाराणा प्रताप ने इस दुर्ग को अकबर के जीवन काल में ही मुगलों से वापस छीन लिया था किंतु महाराणा प्रताप का इंतकाल होने के बाद से यह दुर्ग मेवाड़ और मुगलों के बीच बराबर आता-जाता रहता था।
इन दिनों माण्डलगढ़ दुर्ग पर महाराजा रूपसिंह, शाहजहाँ के जोर से अपना अधिकार बनाए हुए था तथा महाराजा की तरफ से महाजन राघवदास माण्डलगढ़ का किलेदार था। महाजन राघवदास एक वीर पुरुष था, लड़ना और मरना दोनों अच्छी तरह जानता था किंतु उसके पास मुट्ठी भर सेना ही थी। इसलिए राघवदास अकेला पड़ गया। महाराणा की फौजों के सामने राघवदास कुछ घण्टे भी नहीं टिक सकता था।
बादशाह बीमार पड़ा था और दारा शिकोह अपने भाइयों द्वारा की गई बगावत में उलझा था इसलिए रूपसिंह के लिए यह संभव नहीं था कि वह कहीं से भी सेना को माण्डलगढ़ भिजवा सके। रूपसिंह की अपनी सेनाएं दारा शिकोह की सुरक्षा करने में लगी थीं। इसलिए माण्डलगढ़ के लिए पर्याप्त सेनाएं नहीं भेजी जा सकीं तथा महाजन राघवदास अपने प्राण देकर भी माण्डलगढ़ को महाराणा राजसिंह की दाढ़ में जाने से नहीं रोक सका। इस विपन्न अवस्था में भी राघवदास को महाराजा द्वारा दी गई जिम्मेदारी पूरी तरह स्मरण रही। उसने प्राण त्यागने से पहले ही भगवान कल्याणराय का विग्रह दुर्ग से सुरक्षित निकालकर रूपनगढ़ भिजवा दिया।
इस प्रकार भगवान कल्याण राय कुछ दिन माण्डलगढ़ प्रवास करने के बाद अपने भक्त रूपसिंह द्वारा बसाई हुई नगरी में लौट आए। हालांकि उन दिनों रूपनदी में जल की बहुत क्षीण धारा बहती थी फिर भी रूपनदी के जल से भगवान का पद प्रक्षालन किया गया और उन्हें रूपनगढ़ के दुर्ग में पूरी सजधज के साथ प्रतिष्ठित कर दिया गया।