Saturday, December 21, 2024
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50. तेजकरणसिंह

महाराजा विजयसिंह के सात पुत्र हुए थे। सबसे बड़ा कुँवर फतहसिंह था जिसके कोई संतान नहीं हुई। दूसरा कुँवर भौमसिंह केवल बीस वर्ष की आयु में चेचक से मर गया। तब भौमसिंह का पुत्र भीमसिंह बहुत छोटा था। मरुधरानाथ ने भीमसिंह को कुँवर फतहसिंह के गोद बैठा दिया ताकि भीमसिंह को पिता मिल जाये और फतहसिंह को संतान मिल जाये। दुर्भाग्य से कुछ ही समय बाद विजयसिंह के चौथे कुँवर सरदारसिंह का भी चेचक से निधन हो गया। विजयसिंह अभी अपने दोनों पुत्रों की मृत्यु के शोक से उबरा भी नहीं था कि सबसे बड़े कुँवर फतहसिंह का भी निधन हो गया। विजयंिसह पर मानो वज्रपात हो गया किंतु विधि के विधान के समक्ष वह कर भी क्या सकता था!

महाराजा विजयसिंह का तीसरा पुत्र जालमसिंह अपनी माँ राणावतजी के साथ बाल्यकाल से ही अपने ननिहाल उदयपुर में रहता था। वह महाराणा अड़सी का भान्जा था। इस समय मरुधरानाथ के जीवित पुत्रों में वही सबसे बड़ा था। उसे जोधपुर राज्य की ओर से एक लाख की जागीर मिली हुई थी।

मरुधरानाथ का पांचवा कुँवर गुमानसिंह, छठा सावंतसिंह तथा सातवां कुँवर शेरसिंह था। मारवाड़ की परम्परा के अनुसार कुँवर जालमसिंह सबसे बड़ा जीवित पुत्र होने के नाते युवराज पद पाने का अधिकारी था किंतु उसकी माता मरुधरानाथ से नाराज होकर अपने पुत्र को लेकर उदयपुर चली गई थी तथा वहीं रहती थी। इस कारण युवराज पद पर उसका दावा उतना प्रबल नहीं रहा था। मारवाड़ के सरदार तथा स्वयं मरुधरानाथ चाहते थे कि सबसे बड़े कुँवर फतहसिंह का एक मात्र दत्तक पुत्र होने के नाते कुँवर भीमसिंह युवराज बने।

मरुधरानाथ की प्रीतपात्री गुलाबराय जो भले ही सरदारों और राजपरिवार के सदस्यों की दृष्टि में एक पासवान ही थी किंतु महाराजा द्वारा विधिवत् महारानी घोषित कर गई दी थी। उसकी इच्छा थी कि महाराजा के बाद उसका अपना पुत्र तेजकरण सिंह मारवाड़ का राजा बने। ऐसा करके वह दो लक्ष्य साधना चाहती थी। पहला तो यह कि उसके अपने गर्भ से उत्पन्न पुत्र मारवाड़ का शासक बनेगा। उसके बाद उसके वंशज ही मारवाड़ की गद्दी के अधिकारी होंगे जिससे पीढ़ियों तक गुलाब का रक्त मारवाड़ पर शासन करता रहेगा। दूसरा लक्ष्य यह कि ऐसा करके वह मारवाड़ की पट्टराणी शेखावतजी को भरपूर प्रत्युत्तर देकर अपना पुराना हिसाब चुका सकती थी। यद्यपि गुलाब जानती थी कि यह कार्य सरल नहीं है। इसके लिये उसे बहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे। फिर भी अपने गर्भ से उत्पन्न पुत्र को मारवाड़ की गद्दी पर बैठाने के लिये गुलाब ने अपने मार्ग की हर बाधा से भिड़ जाने का निश्चय किया।

भारत में मुगल सल्तन के दो सौ साल के शासन के प्रभाव से राजपूताना की रियासतों में यह नई परम्परा जन्म ले चुकी थी कि राजा के बाद उसका ज्येष्ठ कुँवर नैसर्गिक अधिकार से राजा न बने अपितु जिस कुँवर को राजा चाहे वही राजा बने। इसलिये राजपूताने के सारे रजवाडे़ हर समय षड़यंत्रों से भरे रहते थे। राज्य के सामंत, सरदार और मुत्सद्दी, रनिवास की रानियाँ, राजा की प्रीतपात्री पासवानें और रानियों के पीहर वाले हर समय इसी उधेड़बुन में रहते थे कि इस राजा के मरने के बाद वही कुँवर रियासत का राजा बने जिसे वे अपने हाथों से राजगद्दी पर बैठाकर उसका राजतिलक करें।

महाराजा विजयसिंह की वृद्धावस्था देखकर मारवाड़ में भी यह होड़ आरंभ होनी ही और उसका सूत्रपात किया गुलाबराय ने। उसने अपने पुत्र तेजकरणसिंह को हर समय महाराजा की सेवा में उपस्थित रहने का निर्देश दिया। महाराजा जब भी दरबार में आते, तेजकरणसिंह अनिवार्य रूप से दरबार में उपस्थित रहता। महाराजा यदि गढ़ से बाहर निकलते तो भी तेजकरण का अश्व महाराजा के अश्व के पीछे लगा ही रहता।

अपनी माँ के स्वभाव के विपरीत, तेजकरणसिंह शांत स्वभाव का युवक था। उसके चेहरे पर वह राजकीय आभा तो नहीं थी जो दूसरे कुँवरों के चेहरे पर विराजमान रहती थी किंतु फिर भी अपनी माँ गुलाब के अप्रतिम सौंदर्य का कुछ हिस्सा उसे भी मिला था जिसके बल पर वह सुदर्शन दिखाई देता था। महाराजा के साथ अधिक से अधिक समय गुजारने के कारण तेजकरणसिंह राज्यकार्य में समझने लगा। उसे दरबार की परम्पराओं, राजा की जिम्मेदारियों और मारवाड़ रियासत की समस्याओं के बारे में अच्छी जानकारी हो गई। दूसरी ओर राणियों के कुँवरों को इससे कोई लेना-देना नहीं था। वे अपना समय आमोद- प्रमोद में व्यय करते। मदिरा का सेवन करते, सुंदर दासियों के सान्निध्य का लाभ उठाते और संध्याकाल में दूर तक रेतीले धोरों में ऊँटों को तथा पर्वत उपत्यकाओं में सुदृढ़ अश्वों को दौड़ाते हुए चले जाते। बहुत अधिक हुआ तो प्रातः काल में कुछ समय के लिये तलवार पर हाथ साफ करते। उन्हें मारवाड़ रियासत की राजनीति को समझने की न तो आवश्यकता थी और न समझ। गुलाब, कुँवरों की इस स्थिति को देखकर अत्यंत प्रसन्न रहती थी, भीतर ही भीतर उसे लगने लगा था कि अवसर आने पर तेजकरणसिंह इन सब पर भारी पड़ेगा किंतु होनी को संभवतः कुछ और ही स्वीकार्य था।

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