यह चैत्र शुक्ला नवमी की रात थी। सर्दियां काफी पीछे छूट गई थीं और अब हलकी गर्मी होने लगी थी। मरुधरानाथ गुलाब के साथ ब्याळू करके महल की छत पर टहल रहा था। यद्यपि राजवैद्य ने राजा को चेताया था कि चैत्र माह में रात्रि में खुले आकाश में नहीं रहना चाहिये। फिर भी ब्याळू करने के बाद राजा एक बार महल की छत पर चढ़ा तो पाँच घड़ी तक वहीं गुलाब से बातें करता रहा। बातें थीं कि समाप्त होने पर ही नहीं आती थीं। मरुधरानाथ ने गुलाब से जानना चाहा था कि क्या महादजी से पुराना हिसाब चुकाने का प्रयास करना चाहिये!
गुलाब इस बात की प्रबल पक्षधर थी कि मरुधरानाथ को मराठों से अपनी पुरानी पराजय का बदला अवश्य लेना चाहिये। इस समय राज्य का कोष भी भरा हुआ था तथा पाँच सालों तक मराठों के मारवाड़ से दूर रहने के कारण राजा के सैनिक भी अच्छी संख्या में मिलने की आशा थी। अभी वे बात कर ही रहे थे कि आकाश में एक विचित्र घटना हुई।
दक्षिण दिशा में बड़ी जोर का प्रकाश चमका जो देखते ही देखते प्रकाश की मोटी रेखा में बदल गया। मरुधरानाथ और गुलाब समझने का प्रयास कर ही रहे थे कि यह क्या है, तभी आकाश का एक बड़ा तारा टूटकर महाराजा के महलों के पीछे गढ़ के बाहर की ओर गिर गया। तारे का तेज प्रकाश दूर तक नगर के परकोटे में फैल गया जिससे दोनों की आँखें चुंधिया गईं। अभी वे आँखें खोलने का प्रयास कर ही रहे थे कि तेज धमाके से गुलाब का हृदय काँप उठा। उसने भयभीत होकर महाराजा की भुजा कसकर पकड़ ली और काफी देर तक नहीं छोड़ी। कोई एक घड़ी तक तारे का प्रकाश दिखाई दिया।
जब प्रकाश बुझ गया तब मरुधरपति और गुलाब काँपते हृदयों से छत से नीचे उतरे। ईश्वर जाने यह किस अनहोनी की पूर्व सूचना थी! उल्कापात होते तो खूब देखे थे किंतु यह कैसा उल्कापात था जिसमें इतनी तेज चमक थी! तारे टूटते भी बहुत देखे थे किंतु यह कैसा तारा था जिसमें ऐसा तेज धमाका हुआ था कि गढ़ की दीवारें तक बज उठी थीं।
उस रात दोनों को भविष्य की किसी आशंका से नींद नहीं आई। अगले दिन दशमी थी। पूरे दिन नगर में इस उलकापात की चर्चा रही। रात होने पर राजा फिर ब्याळू करके महल की छत पर गया। आज भी गुलाब उसके साथ थी। वे कल की घटना पर चर्चा कर ही रहे थे कि आकाश में गड़गड़ाहट होने लगी मानो बादल गरज रहे हों। दोनों ने चौंककर आकाश की ओर देखा, चारों ओर कहीं भी बादल नहीं थे! फिर यह कैसी आकाशीय गड़गड़ाहट थी जो बिना बादलों के ही हो रही थी! लगभग आधी घड़ी तक आकाश में गड़गड़ाहट होती रही। गुलाब और महाराजा फटी हुई आँखों से आकाश में हो रहे इस विचित्र उपद्रव को देख ही रहे थे कि पूरी राजधानी भयानक भूकम्प से काँप उठी। महल की छत काँपने लगी तो वे दोनों छत से नीचे की ओर भागे। हे ईश्वर! क्या इच्छा है तुम्हारी? गुलाब ने दोनांे हाथ जोड़कर केशव का स्मरण किया।
आकाश में बिना बादलों की गड़गड़ाहट होते देखकर प्रजा ने अपने घरों से बाहर निकलकर मटकियाँ फोड़ीं। उस समय मरुधरानाथ की राजधानी जोधपुर में पैंतालीस हजार घरों की बस्ती थी। कदाचित् ही कोई घर बचा था जिसके आगे मटकियां न फोड़ी गई हों। जब धरती डोलने लगी तो लोगों ने घरों के बाहर मेहंदी भरे हाथ अंकित करके नगर की रक्षक देवी चामुण्डा की टेर लगाई। आधी घड़ी बाद सारा उत्पात समाप्त हो गया।