कई दिनों तक बेसुध पड़े रहने के बाद ज्येष्ठ वदि 10 को मरुधरानाथ की सुधि लौटी। कई दिनों बाद वह नहाकर तैयार हुआ और पालकी में बैठकर गढ़ से नीचे उतरा। प्रजा ने बहुत दिनों बाद उसकी झलक देखी। उसकी श्वेत लम्बी दाढ़ी हवा में लहरा रही थी और उसके सामने रखा खंग भी दूर से दिखाई दे रहा था। वही तेज, वही ओज, नेत्रों मे वैसी ही नाहर जैसी चमक। चारों तरफ से जय मरुधरानाथ! जय कमधजिया राठौड़। घोष होने लगा। नगर की संकीर्ण वीथियों से होता हुआ वह बाल किसनजी के मंदिर में पहुँचा। इसी मंदिर में प्रथम बार उसने गुलाब को देखा था। आज उसी पुराने दृश्य को याद करके वह बच्चों की तरह फूट-फूट कर रो पड़ा। फिर बहुत देर तक मंदिर में चुप बैठा रहा।
दो घड़ी दिन चढ़े वह फिर से गढ़ पर आया। भोजन करके ढोलिये पर पौढ़ा ही था कि उसका शरीर शिथिल होने लगा। वैद्य ने औषधि दी किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। बेचैनी बढ़ती चली गई। डेढ़ प्रहर रात गये राजा ने पासवान की दोनों डावड़ियों को बुलाकर फिर से पूछा-‘सरदारों ने पासवान की हत्या कैसे की?’
दासियों ने एक बार फिर पूरा किस्सा कह सुनाया। इस किस्से के कुछ हिस्से की तो वे स्वयं प्रत्यक्षदर्शी रही थीं और कुछ हिस्सा उन्होंने दूसरों के मुँह से सुना था।
बातों में ही अर्धरात्रि से अधिक समय व्यतीत हो गया। तीनों की अश्रुधाराएं बहती रहीं। महाराजा का बुखार तेज हो आया। श्वाँस चढ़ गई और सुधि जाती रही। सेवक उसे दवा पिलाकर चेतना लौटाने का प्रयास करने लगे। बहुत देर बाद राजा की सुधि लौटी। फिर भी श्वाँस चढ़ती ही चली गई। आशा और निराशा के बीच हिचकोले लेते हुए प्रातः हो गई। जालमसिंह चाम्पावत, सार्दूलसिंह कूँपावत, घनश्याम करणोत, बारठ पदमसिंह तथा गढ़मल वैद्य, मरुधरपति का हाल जानने ड्यौढ़ी पर हाजिर हुए। महाराज ने उन्हें एक साथ आया देखकर पूछा-‘अब क्या करने का विचार है?’
-‘जैसी आपकी आज्ञा हो, वही किया जायेगा।’ जालमसिंह चाम्पावत ने उत्तर दिया।
-‘आप सब सरदारों और मुसाहिबों को कुँवर जालमसिंह, भीमसिंह, शेरसिंह, सावंतसिंह और मानसिंह का ध्यान रखना चाहिये। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो हमारे पश्चात् राज्य को संभाल सके। इसलिये हमारा आदेश यह है कि कुँवर सांवतसिंह के इन्द्रभणोत राणी से उत्पन्न नौ वर्ष के कुँवर सूरसिंह को सब सरदार एक मत होकर राजा बना दें।’
-‘जब तक मेरे शरीर में रक्त की एक भी बूंद शेष है, मैं बापजी के आदेश की पालना करूंगा। कुँवर सूरसिंह ही आपके पश्चात् मारवाड़ के धणी होंगे।’ जालमसिंह चाम्पावत ने महाराज को आश्वस्त किया। दूसरे सरदारों ने भी राजा के आदेश की पालना करने का वचन दिया।
सरदारों ने वचन दे तो दिया किंतु वे जानते थे कि भविष्य पर उनका कोई जोर नहीं है। महाराज का मन अब भी अशांत था। वह भी जानता था कि भले ही सरदार कितने ही वचन क्यों न दें, होगा वही जो विधाता ने रच रखा होगा। एक दिन और निकल गया।
अगले दिन मरुधरानाथ ने बारठ पदमसिंह, वैद्य गढ़मल तथा धायभाई शम्भूदान को अपने निकट बुलाकर पुनः आदेश दिया-‘कुँवर सूरसिंह इस समय नौ वर्ष का है, उसे राज्य दे दिया जाये। किसी हालत में कुँवर भीमसिंह को राज्यगद्दी पर न बैठाया जाये अन्यथा राज्य का विवाद कभी समाप्त नहीं होगा। यदि बैठायेंगे तो षड़यंत्रकारी होगा। वह आप सबको तकलीफ देने वाला होगा।’ तीनों ने महाराजा के आदेश को शिरोधार्य कर लिया। इस आदेश के बाद तीन दिन और निकल गये।
देखने वालों के लिये राजा बेसुध था किंतु राजा तो अपनी गुलाब के साथ जाने किन लोकों की यात्रा करता घूम रहा था। एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए न जाने किन-किन लोकों में घूम आये थे दोनों। एक से एक विचित्र स्थान। ऊँचे-ऊँचे पहाड़, लम्बी-लम्बी गुफायें, बीहड़ घने जंगल, आकाश की ऊँचाई से गिरते झरने, आँख की सीमा से भी पार तक फैले हुए रेगिस्तान और भी जाने क्या-क्या देखा दोनों ने। जब दोनों पागल प्रेमी जी भर कर घूम चुके तो फिर से गुलाब के बगीचे में आ गये। गुलाब तानपूरा हाथ में लेकर मुरली मनोहर के समक्ष बैठकर गाने लगी-
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।
काम क्रोध को पहिरि चोलना, कण्ठ बिषय की माल।
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा शब्द रसाल।
भरम भर्यो मन भयो पखावत चलत कुसंगत चाल।
तृष्णा नाद करत घट भीतर, नाना विधि दै ताल।
राजा के नेत्रों से अश्रुओं की धार बह निकली। गुलाब गाते-गाते रुक गई। उसने अपनी कोमल हथेलियों से राजा के आँसू पौंछे। राजा ने तानपूरा अपने हाथ में ले लिया और आगे की पंक्तियां स्वयं गाने लगा-
माया को कटि फेंटा बांध्यो लोभ तिलक दियो भाल।
कोटिक कला काछि देखराई, जल थल सुधि नहिं काल,
सूरदास की सबै अबिद्या, दूरि करो नँदलाल।
भजन पूरा हो गया। राजा ने तानपूरा नीचे रख दिया। अचानक गुलाब आकाश में उठने लगी। मरुधरानाथ ने उसे उठते हुए देखा तो जोर से चिल्लाया-‘गुलाब!’
ठीक इसी समय उसकी मूर्च्छा टूटी और अगले ही क्षण उसके प्राण पंखेरू अनंत गगन की ओर उड़ चले। आकाश में ऊपर उठती हुई गुलाब उसे लेने के लिये फिर से नीचे उतरी। दोनों पागल प्रेमी फिर से एक थे। पेड़ों के ऊपर से उड़ते हुए चले जा रहे थे। राजा के पुरखों का गढ़ नीचे छूटता जा रहा था। अब राजा को किसी की परवाह नहीं थी। न गढ़ की, न पुर की, न राज की और न कोष की। महल में इस समय अर्धरात्रि का सन्नाटा छा हुआ था। किसी को कुछ पता नहीं चल सका कि क्या हुआ!
इधर मरुधरानाथ की आत्मा पासवान गुलाबराय के साथ देवलोक के लिये प्रस्थान कर रही थी और उधर कुँवर जालमसिंह जोधपुर से पाँच कोस दूर बैठा राजपाट प्राप्त करने की योजना बना रहा था। कुँवर मानसिंह जालौर के दुर्ग में अपने दस हजार सैनिकों के साथ बैठा हुआ राजा बनने का सपना देख रहा था। कुँवर शेरसिंह और कुँवर सूरसिंह गढ़ के भीतर मौजूद थे और राजा बनने के लिये अपने समर्थकों से जुगाड़ भिड़ा रहे थे। केवल कुँवर भीमसिंह ही ऐसा था जो इस समय जोधपुर से साठ कोस की दूरी पर था और राजा बनने के लिये साण्ड पर बैठकर ताबड़तोड़ जोधपुर की ओर बढ़ा चला आ रहा था।