जयगढ़ दुर्ग
सवाई जयसिंह ने 1726 ई. में आम्बेर दुर्ग के निकट चील का टीला पर जयगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। इसकी संरचना काफी कुछ आम्बेर दुर्ग से मिलती-जुलती है। उत्तर-दक्षिण में इसकी लम्बाई 3 किलोमीटर तथा पूर्व पश्चिम में चौड़ाई 1 किलोमीटर है। इस दुर्ग में जयबाण नामक एक विशाल तोप बनवाई गई जो उस समय पहियों पर स्थित, विश्व की सबसे बड़ी तोप थी। आम्बेर दुर्ग तथा जयगढ़ दुर्ग एक गलियारे के द्वारा एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
वेधशालाओं का निर्माण
सवाई जयसिंह को गणित, ज्योतिष एवं नक्षत्र विद्या के अध्ययन में गहन रुचि थी। जयसिंह ने अपने बारे में लिखा है कि उसने बचपन से गणित का अध्ययन किया जो युवावस्था तक चलता रहा। मुझे भगवत् कृपा से यह ज्ञात हुआ कि संस्कृत, अरबी और यूरोपियन पंचांगों के ग्रहों की स्थिति उससे भिन्न मिलती है जो स्वयं के पर्यवेक्षण से पता चलती है, विशेषतः द्वितीया के चंद्र की स्थिति। 1725 ई. में उसने बादशाह मुहम्मदशाह से अनुमति लेकर दिल्ली के जयसिंहपुरा क्षेत्र में एक वेधशाला का निर्माण करवाया।
वेधशाला यंत्रों का आविष्कार
जयसिंह ने प्रथम प्रयास में पीतल धातु से निर्मित छोटे यंत्र लगाये जिससे समय के छोटे खण्डों का सही पता नहीं चल पाता था। धातु से बने यंत्रों की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि वे तापमान के बढ़ने और घटने के साथ फैलते और संकुचित होते थे। इसलिये जयसिंह ने पत्थर और चूने की सहायता से स्वयं अपने द्वारा आविष्कार किये हुए बड़े यंत्र बनवाये। माना जाता है कि जय प्रकाश, राम यंत्र तथा सम्राट यंत्र, जयसिंह के स्वयं के आविष्कार थे।
सम्राट यंत्र
सम्राट यंत्र पर एक ऐसी घड़ी बनी हुई है जो भूमध्य रेखा पर सूर्य के समय को दर्शाती है। उसके नीचे एक त्रिभुजाकार सुई लगी है जो सूर्य की स्थिति को छाया के रूप में दर्शाती है। इसका त्रिभुजाकार सुई का कर्ण पृथ्वी की धुरी के समानान्तर है और उसका दूसरा पक्ष गोले का एक चौथाई भाग बनाता है जो भूमध्य रेखा के समानान्तर है। इसके सिरों पर घण्टे, मिनिट और डिग्री अंकित हैं और त्रिभुज के तीनों छोर चौथाई गोलों पर अलग-अलग स्पर्श रेखाएं बनाते हैं जिनके दोनों छोर चिह्नित हैं। जयपुर की वेधशाला के इस यंत्र की ऊँचाई 90 फुट और लम्बाई 147 फुट है। गोले के दोनों चौथाई भागों का अर्धव्यास 50 फुट है। दिल्ली का सम्राट यंत्र आकार में इससे कुछ छोटा है।
जयप्रकाश यंत्र
जयप्रकाश यंत्र एक गोलार्द्ध है जिसके भीतरी ओर कुछ एक जैसे चिह्न अंकित हैं। इस पर उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम जाते हुए तार लगे हुए हैं और जहां तार एक दूसरे को काटते हैं, उस बिंदु की छाया से सूर्य की स्थिति का पता चलता है। चिह्नित स्थानों पर दृष्टि डालने से दूसरे ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति जानी जा सकती है। जिस ग्रह-नक्षत्र का चिह्न है, उस पर पड़ती हुई छाया की स्थिति नक्षत्र की स्थिति बताती रहती है। इसलिये यह यंत्र अलग-अलग दो गोलार्द्धों में बनाया गया है। दिल्ली के जयप्रकाश यंत्र का व्यास 27 फुट और जयपुर के जयप्रकाश यंत्र का व्यास 17 फुट है।
रामयंत्र
रामयंत्र दो बेलनाकार शीर्षों की ओर खुला हुआ है। इसकी भीतरी और बाहरी दीवारों पर चिह्न अंकित हैं। इनसे नक्षत्र की ऊँचाई आदि का ज्ञान होता है। पर्यवेक्षण की सुविधा के लिये नीचे की ओर से दोनों ओर खुले हुए खण्ड हैं। इस यंत्र में दिक्-अंश यंत्र और नाड़ी वलय भी हैं जो ज्योतिषीय पर्यवेक्षण में उपयोगी हैं। इससे पूर्व इतने सटीक यंत्र नहीं बन सके थे। इन्हें भारत में सर्वप्रथम होने का गौरव भी प्राप्त है। जयसिंह ने पंचांग के शुद्धिकरण का कार्य किया ताकि तिथियां सही समय पर पहचानी जा सकें। ग्रहण कब पड़ेगा, इसकी भी सही भविष्यवाणी की जा सकती है। राजा जयसिंह, जहाँ-जहाँ रहा, वहाँ-वहाँ उसने वेधशालाएँ बनवाईं। जयपुर उसकी स्वयं की राजधानी थी। उज्जैन उसके मालवा सूबे की राजधानी थी। बनारस और मथुरा उसके आगरा सूबे में स्थित थे। दिल्ली की वेधशाला भी जयसिंहपुरा नामक उपनगर में बनवाई गई जो जयसिंह का अपना क्षेत्र था। उसने वेधशालाओं में बडे़-बडे़ यन्त्र बनवाकर नक्षत्रों की गति को शुद्ध रूप से जानने के साधन उपलब्ध कराये। मथुरा की वेधशाला अब अस्तित्व में नहीं है तथा दिल्ली की वेधशाला काम नहीं करती है। शेष वेधशालाएं आज भी काम करती हैं।
आमेर में नये निर्माण
सवाई जयसिंह ने मुगल ढंग की कुछ इमारतें भी बनवायी थीं। आमेर के किले में ‘दीवान-ए-खास’ की इमारत उसी के द्वारा बनवायी गयी थी। इस सम्बन्ध में डॉ. वी. एस. भटनागर ने लिखा है- ‘सवाई अपने महत्त्वकांक्षी स्वभाव के कारण मुगल बादशाह की बराबरी करना चाहता था। इसीलिए उसने मुगल ढाँचे की इमारतें बनवायीं।’
मंदिरों एवं धर्मशालाओं का निर्माण
सवाई जयसिंह ने अपने नगर तथा अन्य स्थानों पर कुछ मंदिरों का भी निर्माण करवाया। बृजनाथ का मन्दिर और आनन्द कृष्णजी का मन्दिर सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित मन्दिरों में सर्वोकृष्ट हैं। अपनी ख्याति को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए उसने अयोध्या, मथुरा तथा काशी में यात्रियों के विश्राम के लिए धर्मशालाएं भी बनवायीं।