हंसाबाई की सहृदयता
मारवाड़ पर कुम्भा का अधिकार हुए पन्द्रह साल बीत गये किंतु जोधा को सफलता नहीं मिल रही थी। अपने भतीजे जोधा की ऐसी दुर्दशा देखकर, महाराणा कुम्भा की दादी हंसाबाई ने एक दिन कुम्भा को अपने पास बुलाकर कहा- ‘मेरे चित्तौड़ ब्याहे जाने में राठौड़़ों का सब प्रकार नुकसान ही हुआ है। रणमल ने मोकल को मारने वाले चाचा और मेरा को मारा, मुसलमानों को हराया और मेवाड़ का नाम ऊंचा किया परन्तु अन्त में वह भी मरवाया गया और आज उसी का पुत्र जोधा निस्सहाय होकर मरू भूमि में मारा-मारा फिरता है।’ महाराणा ने कहा- ‘मैं प्रकट रूप से तो चूण्डा के विरुद्ध जोधा को सहायता नही दे सकता क्योंकि रणमल ने उसके भाई राघवदेव को मरवाया था। आप जोधा को लिख दें कि वह मण्डोर पर अधिकार कर ले, मैं इस बात से नाराज नहीं होऊंगा।’ तदनन्तर हंसाबाई ने आशिया चारण डूला को जोधा के पास यह संदेश देने के लिए भेजा। डूला चारण, जोधा को ढूंढता हुआ मारवाड़ की थलियों के गांव भाडंग और पड़ावे के जंगलों में पहुंचा, जहाँ जोधा अपने कुछ साथियों सहित बाजरे के सिट्टों से क्षुधा शांत कर रहा था। चारण ने उसे पहचान कर हंसाबाई का संदेश सुनाया।
डॉ. दशरथ शर्मा ने लिखा है कि विशुद्ध राजनीतिक मामलों में इस प्रकार के अनुरोधों का कोई महत्व नहीं होता। जोधा और कुम्भा की सेनाओं के मध्य लड़े जाने वाले निरन्तर युद्ध इस प्रकार की मान्यता का अपने आप खण्डन करते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि जोधा द्वारा मण्डोर पर अधिकार कर लेने के बाद स्वंय कुम्भा ने सेना सहित जोधा के विरुद्ध प्रस्थान किया था।
कुम्भा के सरदारों से मेल
अपनी बुआ हंसाबाई का संदेश पाकर जोधा का हौंसला बढ़ गया। उसने नये सिरे से राज्य प्राप्ति के प्रयास आरम्भ किये तथा कूटनीति का सहारा लेते हुए तेजी से अपने मित्रों की संख्या बढ़ानी आरम्भ की। जोधा ने चूण्डा की ओर से मारवाड़ में नियुक्त सरदारों से भी सम्पर्क किया तथा उनमें से कुछ को अपना मित्र बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। जब चूण्डा ने मारवाड़ राज्य पर अधिकार किया था तब बहुत से भाटी सरदारों ने राठौड़ों से शत्रुता होने के कारण, मेवाड़ की अधीनता स्वीकार कर ली थी। रणमल ने भी भाटियों को मारा था किंतु अब मण्डोर पर सिसोदियों को अधिकार हुए 15 साल बीत गये थे इससे भाटियों और राठौड़ों की शत्रुता में भी कमी आ गई थी। इसके अतिरिक्त जोधा की माँ, भाटियों की राजकुमारी थी। इसलिये बहुत से भाटी सरदार भी जोधा की सहायता करने के लिये तैयार हो गये।
चूण्डा सिसोदिया की मृत्यु
इसी बीच 1453 ई. में जोधा के सौभाग्य से महाराणा कुम्भा के ताऊ चूण्डा सिसोदिया की मृत्यु हो गई। अब कुम्भा को यह भय नहीं रहा कि यदि जोधा को मण्डोर दे दिया जाये तो चूण्डा नाराज हो जायेगा। चूण्डा की मृत्यु से जोधा का हौंसला और अधिक बढ़ गया।
हरभू सांखला का आशीर्वाद
भुण्डेल के महाराज सांखला के पुत्र हरभूजी, बाबा रामदेव के मौसेरे भाई थे। हरभू ने रामदेव की प्रेरणा से अस्त्र-शस्त्र त्यागकर गुरु बाली नाथ से दीक्षा ली थी। वे सिद्ध माने जाते थे तथा मरुस्थल की प्रजा पर उसका बड़ा प्रभाव था। जोधा ने हरभू से सहयोग लेने का निश्चय किया तथा हरभू का आशीर्वाद लेने जा पहुंचा। हरभू ने जोधा को एक कटार दी तथा विजयी होने का आशीर्वाद देते हुए भविष्यवाणी की कि जोधा का राज्य मेवाड़ से जांगलू तक फैलेगा। इस प्रकार हरभू सांखला भी जोधा के सहायक हो गये। हरभूजी के सहयोग से जोधा की स्थिति में सुधार आता चला गया। जोधा ने कुछ नये अश्व खरीदे और चौहान तथा भाटी सरदारों के सहयोग से एक नई सेना संगठित करके कुम्भा को चुनौती देने की तैयारी करने लगा।
जोधा को घोड़ों की प्राप्ति
जोधा के पास मण्डोर पर अभियान करने के लिये पर्याप्त घोड़े नहीं थे। इसलिये वह सेतरावा के रावत लूणकरण के पास गया और उससे अनुरोध किया कि मेरे पास राजपूत तो हैं परन्तु घोड़े मर गये हैं। आपके पास 500 घोड़े हैं, उनमें से 200 घोड़े मुझे दे दें। लूणकरण, जोधा का मौसा लगता था किंतु वह महाराणा की ओर से नियुक्त था इसलिये उसने जोधा को उत्तर दिया कि मैं राणा का आश्रित हूँ। यदि मैं तुम्हें घोड़े दूंगा तो राणा मेरी जागीर छीन लेगा। इस पर जोधा, लूणा की ठकुरानी के पास गया। लूणा की ठकुरानी, भाटियों की राजकुमारी थी तथा जोधा की सगी मौसी थी। उसने जोधा को उदास देखकर, उसकी उदासी का कारण पूछा। जोधा ने कहा कि मैने रावतजी से घोड़े मांगे थे, पर उन्होंने घोड़े देने से मना कर दिया। इस पर भटियाणी ने कहा कि चिंता मत कर मैं तुझे घोड़े दिलाती हूँ। भटियाणी ने अपने पति को महल में बुलाया तथा उसे कुछ आभूषण देकर कहा कि इन आभूषणों को तोशाखाने में रख दो। जब रावत आभूषण रखने तोशाखाने में गया तो भटियाणी ने बाहर से किवाड़ बन्द करके ताला लगा दिया और जोधा के साथ अपनी एक दासी भेजकर अस्तबल वालों से कहलाया कि रावत का आदेश है कि जोधा को सामान सहित घोड़े दे दें। इस प्रकार जोधा वहाँ से 140 घोड़े लेकर रवाना हो गया। कुछ देर बाद भटियाणी ने अपने पति को ताला खोलकर बाहर निकाला। रावत अपनी ठकुराणी और कामदारों पर बहुत अप्रसन्न हुआ और उसने घोड़ों के चरवादारों को पिटवाया परन्तु जोधा के साथ गये हुए घोड़े किसी भी तरह वापस नहीं मिल सके।
अन्य राजपूतों का सहयोग
हरभू सांखला का आशीर्वाद तथा लूणकरण से घोड़े प्राप्त करके जोधा ने विभिन्न शाखाओं के राठौड़ों एवं अन्य कुलों के मित्र राजपूतों से सम्पर्क किया। मालानी के राठौड़, सिवाना के जैतमलोत राठौड़, पोकरन के पोकरणा राठौड़, सेतरावा के देवराजोत राठौड़ जोधा का साथ देने को तैयार हो गये। इसी प्रकार रूण के सांखला राजपूत, ईंदावाटी के ईंदा, सेखाला (शेरगढ़ तहसील) के गोगादे चौहान, गागरौन के खींची चौहान, बीकमपुर के भाटी, पूगल के भाटी तथा जैसलमेर के भाटी भी जोधा की सहायता के लिये आगे आ गये।
चौकड़ी तथा कोसाना पर अधिकार
1453 ई. में महाराणा कुम्भा मालवा और गुजरात के सुल्तानों से संघर्ष करने में व्यस्त था। मण्डोर पर अधिकार जमाने के लिये यही उपयुक्त समय था। जोधा ने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त किया। उसने एक सेना वरजांग के साथ मण्डोर की तरफ भेजी। दूसरी सेना चांपा की अध्यक्षता में कोसाना पर भेजी तथा तीसरी सेना जोधा स्वयं लेकर चौकड़ी की तरफ गया। कोसाना तथा चौकड़ी में अर्द्धरात्रि के समय आक्रमण किये गये। इससे उन गांवों में नियुक्त सैनिक टुकड़ियों में अव्यवस्था फैल गई तथा दोनों गांव राठौड़ों के अधिकार में आ गये। मेवाड़ वालों के घोड़े भी जोधा के हाथ लगे। ख्यातों के अनुसार जिस समय चौकड़ी पर आक्रमण हुआ उस समय सोजत का ठाकुर राघवदेव भी चौकड़ी में था किंतु वह जान बचाकर मेवाड़ की तरफ भाग गया।
जोधा द्वारा मण्डोर राज्य पर अधिकार
कोसाना तथा चौकड़ी पर अधिकार कर लेने के बाद ये दोनों सेनाएं रात्रि में चलकर मण्डोर के निकट वरजांग की सेना से आ मिलीं। प्रातः होने से पूर्व मण्डोर दुर्ग पर आक्रमण किया गया तथा मेवाड़ी अधिकारियों को मारकर मण्डोर दुर्ग पर अधिकार कर लिया गया। इन आक्रमणों में महाराणा की ओर से नियुक्त वणवीर भाटी, राणा बीसलदेव, रावल दूदा आदि मेवाड़ी अधिकारी मारे गये। मण्डोर के युद्ध में रावत चूण्डा सिसोदिया के दो पुत्र कुंतल तथा सूआ, चचेरा भाई अक्का तथा आहाड़ा हिंगोला भी मारे गये। जोधा के भी बहुत से सैनिक मारे गये। मान्यता है कि हरभू सांखला भी इस युद्ध में जोधा की तरफ से लड़ते हुए काम आये। इस प्रकार 1453 ई. में मण्डोर पर जोधा का अधिकार हो गया। इसके बाद जोधा ने सोजत पर भी अधिकार कर लिया। मण्डोर में नियुक्त अधिकांश सिसोदिया सैनिकों को मौत के घाट उतार कर राठौड़़ों ने अपना पुराना हिसाब चुकता किया। आहाड़ा हिंगोला की छतरी मण्डोर में बनी हुई है।
क्या मण्डोर का द्वार धोखे से खुलवाया गया था?
कुछ ख्यातों में यह लिखा है कि राव रणमल के दादा वीरमदेव का एक विवाह मांगलिया शाखा के सिसोदियों की पुत्री से हुआ था। जब रणमल चित्तौड़ में रहता था तो मांगलिया कल्याणसिंह और रणमल के बीच घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। जब 1453 ई. में जोधा ने मण्डोर पर आक्रमण किया तो यही मांगलिया कल्याणसिंह मण्डोर का कोतवाल था। पुरानी मैत्री का विचार करके कल्याणसिंह ने मण्डोर दुर्ग का द्वार खुलवा दिया। इस कारण जोधा को मण्डोर दुर्ग जीतने में अधिक समय नहीं लगा।
ख्यातों में बिना सिर-पैर की बहुत सी अनर्गल बातें लिखी हैं। राव वीरमदेव को मरे हुए 70 वर्ष तथा राव रणमल को मरे हुए 15 वर्ष हो चुके थे। रोटी-बेटी का सम्बन्ध राजपूतों में होता ही रहता था। एक ही घर की दो बेटियां परस्पर शत्रुता रखने वाले राजपरिवारों में ब्याह दी जाती थीं। अतः वीरमदेव से मांगलियों के वैवाहिक सम्बन्ध का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था। यह भी सत्य प्रतीत नहीं होता कि मांगलिया कल्याणसिंह ने अपने जीवित स्वामी से धोखा करके अपने मृत मित्र के पुत्र के लिये उस दुर्ग के द्वार खुलवा दिये जिसका कि वह स्वयं मुख्य रक्षक था। क्या कोई भी दुर्ग रक्षक अपने एक मृत मित्र के पुत्र को दुर्ग सौंपने के लिये दुर्ग में स्थित अपने ही सैनिकों को मृत्यु के मुख में जाने के लिये उनसे छल कर सकता था? यदि मांगलिया कल्याणसिंह और महाराणा कुम्भा के बीच कोई अनबन रही हो तो ऐसा होना संभव था किंतु इस आशय की कोई जानकारी ख्यातों से नहीं मिलती। अतः ख्यातों की इस कपोल-कल्पना का कोई आधार प्रतीत नहीं होता।
जोधा का राजतिलक
जब मण्डोर राठौड़ों के अधिकार में आ गया तो जोधा के बड़े भाई अखैराज ने अपनी तलवार से अपना अंगूठा चीरकर जोधा का राजतिलक किया। जोधा ने उसी समय घोषणा की कि मेवाड़ वालों से बगड़ी छीनकर पुनःअखैराज को दी जायेगी। इस घटना से दो तथ्यों की पुष्टि होती है। पहला तथ्य यह कि बड़े भाई अखैराज के रहते हुए भी जोधा ने ही पैतृक राज्य प्राप्त करने का संघर्ष किया था और सफलता अर्जित की थी। इसलिये जोधा को राजा बनाया गया न कि अखैराज को। दूसरा तथ्य यह कि स्वर्गीय रणमल ने अपने जीवन काल में अखैराज को बगड़ी की जागीर दे रखी थी जिसे मेवाड़ वालों ने छीन लिया था।
कापरड़ा तथा रोहट पर अधिकार
मण्डोर पर अधिकार करने के बाद जोधा ने अपने भाई चांपा को कापरड़ा पर तथा वरजांग को रोहट पर अधिकार करने भेजा। चांपा ने सरलता से कापरड़ा पर अधिकार कर लिया। वरजांग रोहट पर अधिकार करने के बाद पाली, खैरवा तथा नाडौल को भी अपने अधिकार में करके नारलाई तक पहुंच गया। यह मेवाड़ राज्य की सीमा थी। वरजांग ने रावत चूण्डा सिसोदिया के पुत्र मांजा को भी मार डाला। इससे सिसोदियों का उत्साह भंग हो गया और वे चौकियां छोड़ कर भागने लगे।
सोजत पर अधिकार
सोजत, मारवाड़ और मेवाड़ की सीमा पर स्थित था। इसलिये जोधा स्वयं सेना लेकर सोजत गया तथा उसने अपने भाई चचेरे भाई राघवदेव को सोजत से भगाकर सोजत पर अधिकार कर लिया। इसी अवसर पर उसने बगड़ी पर अधिकार करके अपने बड़े भाई अखैराज को बगड़ी की जागीर प्रदान की। थोड़े ही दिनों में जोधा ने अपने पैतृक राज्य का अधिकांश भाग अपने अधिकार में ले लिया। इसके बाद से मारवाड़ राज्य में यह प्रथा चल पड़ी कि जोधपुर के राजा का निधन होने पर बगड़ी की जागीर जब्त कर ली जाती थी। जब नया राजा पाट पर बैठता तो बगड़ी ठाकुर द्वारा अपना अंगूठा चीरकर नये राजा का अपने रक्त से तिलक करता। इसके बाद ठाकुर को बगड़ी की जागीर वापस दे दी जाती।
नरबद का मण्डोर दुर्ग पर अधिकार
जिस समय समय जोधा सोजत में रहकर सिरियारी के मार्ग से मेवाड़ पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था, जोधा का चचेरा भाई तथा सत्ता का पुत्र नरबद गुजरात के सुल्तान की सेना लेकर मण्डोर पर चढ़ बैठा और दुर्ग रक्षकों को मारकर मण्डोर में अपने सैनिक नियुक्त कर दिये। जोधा ने कांधल के नेतृत्व में राठौड़ों की एक सेना मण्डोर के लिये रवाना की तथा दुर्ग रक्षकों को संदेश भिजवाया कि तुम्हें दण्ड देने के लिये सेना आ रही है परंतु सेना के मण्डोर पहुंचने से पहले तुम्हें यह सोच लेना चाहिये कि नरबद जैसे अंधे स्वामी का आश्रय लेकर तुम लोग अधिक समय तक हमारा विरोध कर पाओगे या नहीं? (नरबद अंधा नहीं था, उसका बाप सत्ता अंधा था।) दुर्ग रक्षकों ने भविष्य का अनुमान लगाकर मण्डोर दुर्ग जोधा को सौंपेने का निर्णय किया। इस पर नरबद फिर से गुजरात के सुल्तान के पास भागा किंतु गुजरात पहुंचने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। जब कांधल मण्डोर पहुंचा तो उसने सहज ही मण्डोर दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
मेवाड़ की सेना के अभियान
जिस समय जोधा ने मण्डोर राज्य पर अधिकार किया, उस समय महाराणा कुम्भा मालवा के सुल्तान से युद्ध में उलझा हुआ था। इसलिये कुम्भा ने स्वयं मारवाड़ आने की बजाय अपने सेनापतियों के नेतृत्व में जोधा के विरुद्ध सेना भेजी किंतु मेवाड़ की सेना परास्त होकर भाग गई। इसके बाद कुम्भा ने कई बार सेना भेजी किंतु मेवाड़ की सेना को सफलता नहीं मिली। उल्टे जोधा ने मेवाड़ के गोड़वाड़ क्षेत्र में धावे मारने आरम्भ कर दिये जिससे मेवाड़ को काफी क्षति उठानी पड़ रही थी।
राघवदेव का आक्रमण
जोधा का चचेरा भाई राघवदेव सोजत से भाग तो गया किंतु उसने हार न मानी। कुछ दिन बाद उसने सिसोदियों की सेना लेकर पुनः सोजत पर आक्रमण किया। वरजांग ने राघवदेव का सामना किया तथा राघवदेव को परास्त करके भगा दिया। इस युद्ध में वरजांग बुरी तरह घायल हो गया। इस पर चूण्डा ने अपने अन्य भाई बैरसल को राघवदेव के पीछे भेजा तथा वरजांग को रोहट जाकर उपचार करवाने के आदेश दिये। बैरसल ने राघवदेव का पीछा किया तथा मेवाड़ के मार्गों पर अपनी चौकियां बैठा दीं। बैरसल ने घाणेराव को उजाड़कर वहाँ के निवासियों को गूंदोज में ला बसाया।