अरावली की पहाड़ियों में हजारों साल से, दूर-दूर तक भीलों की बस्तियां बसी हुई थीं। ये लोग पहाड़ियों की टेकरियों पर झौंपड़ियां तथा पड़वे बनाकर रहते थे और छोटे-छोटे तीर-कमान से बड़े-बड़े वन्य पशुओं का शिकार करते थे। अपने शिकार के पीछे भागते हुए वे एक पहाड़ी से उतर कर दूसरी पहाड़ी पर तेजी से दौड़ते हुए चढ़ जाते थे। भीलों में सैनिक संगठन जैसी व्यवस्था नहीं थीं किंतु संकट के समय ये लोग मिलकर लड़ते थे। भील योद्धा स्वाभाविक रूप से पहाड़ियों के दुर्गम मार्गों से परिचित होते थे। इस कारण बड़ी से बड़ी शक्ति के लिये पहाड़ों में आकर भीलों से युद्ध करना, बहुत बड़े संकट को आमंत्रण देने जैसा था। सौभाग्यवश इन भीलों से गुहिल शासकों के सम्बन्ध आरम्भ से ही अच्छे थे। महाराणा कुम्भा ने भीलों से अपनी मित्रता को और अधिक सुदृढ़ बनाया। तब से भील, मेवाड़ राज्य के विश्वसनीय साथी बने हुए थे।
जब उदयसिंह महाराणा बना तो उसने अपने राज्य की सीमाओं के दोनों तरफ मालवा तथा गुजरात जैसे प्रबल शत्रु-राज्यों की उपस्थिति के कारण भीलों के महत्त्व को और अधिक अच्छी तरह से समझा। उदयसिंह यह भी जानता था कि खानुआ के मैदान में अपनी तोपों के बल पर सांगा को पछाड़ने वाले मुगल, अथवा सुमेल के मैदान में मालदेव को पटकनी देने वाले अफगान, किसी भी दिन चित्तौड़ तक आ धमकेंगे और तब चित्तौड़ की दीवारें मेवाड़ राज्य को सुरक्षा नहीं दे पायेंगी। वैसे भी वह महाराणा विक्रमादित्य के समय में चित्तौड़ दुर्ग की दुर्दशा अपनी आँखों से देख चुका था। इसलिये उसने अपनी राजधानी के लिये प्राकृतिक रूप से ऐसे सुरक्षित स्थान की खोज आरम्भ की जहाँ तक शत्रुओं की तोपें न पहुँच सकें। उसकी दृष्टि मेवाड़ राज्य के दक्षिण-पश्चिमी भाग पर गई। मेवाड़ राज्य का यह क्षेत्र विकट पहाड़ियों से घिरा हुआ था तथा बीच-बीच में उपजाऊ मैदान भी स्थित थे जिनमें खेती तथा पशुपालन बहुत अच्छी तरह से हो सकता था। यह पूरा क्षेत्र भील बस्तियों से भरा हुआ था।
महाराणा उदयसिंह ने इस क्षेत्र में उदयपुर नगर की नींव डाली। उसने गिरवा तथा उसके आसपास के क्षेत्र में किसानों एवं अन्य जनता को लाकर बसाया और नई बस्तियां बनानी आरम्भ कीं। शीघ्र ही इस क्षेत्र में बड़े भू-भाग पर खेती-बाड़ी एवं पशु-पालन आदि गतिविधियां होने लगीं। बढ़ई तथा लुहार आदि दस्तकार और छोटे-मोटे व्यापारी एवं व्यवसायी भी आकर बस गये। उदयसिंह के इस कार्य ने राजा और प्रजा के बीच के सम्बन्धों को भी नया आकार दिया। परस्पर सहयोग, मैत्री एवं विश्वास का वातावरण बना। प्रजा अपने राजा को पहले से भी अधिक चाहने लगी।
जब भील क्षेत्रों में नवीन बस्तियां बसाने का कार्य चल रहा था, तब उदयसिंह का बड़ा पुत्र प्रतापसिंह छोटा बालक ही था। वह भी इस कार्य में उत्साह से भाग लेने लगा। उसने इस दौरान अनेक भील बालकों से मित्रता कर ली। भीलों को भी यह नन्हा राजकुमार भा गया और वे उसे कीका के नाम से पुकारने लगे। भीलों में ‘कीका’ छोटे बच्चे को कहते हैं। इस सम्बोधन के कारण प्रतापसिंह भीलों का और भी प्रिय बन गया और उसके मृदुल स्वभाव के कारण उसे भीलों ने अपना ही मान लिया। कीका के साथ उनका भावात्मक सम्बन्ध ऐसा बन गया कि भील युवक, प्रतापसिंह के लिये मरने-मारने को तैयार रहने लगे।
इस काल में प्रतापसिंह और भीलों के बीच आत्मीयता और विश्वास का जो अद्भुत सम्बन्ध बना, वह आगे चलकर प्रतापसिंह के लिये ऐसा सुरक्षा कवच बन गया जिसने प्रतापसिंह को राष्ट्रीय नायक बनने का अवसर प्रदान किया। अफगान और मुगल सब कुछ तोड़ सकते थे किंतु अरावली की उपत्यकाओं में भीलों के बीच सुरक्षित प्रताप का सुरक्षा चक्र नहीं तोड़ सकते थे। वैसे भी प्रताप महलों का नहीं, पहाड़ों का पुत्र था। वह महलों की सुरक्षित तलैयाओं में नहीं अपितु पहाड़ी झरनों में स्नान करता था। वह पिंजरे में बंद तोतों से नहीं अपितु पहाड़ी शेरों और तेंदुओं से खेलता था। अरावली की पहाड़ियों ने अपने भावी राष्ट्रनायक को रचा, पाला और बड़ा किया। वह अपने पिता की तरह दूरदृष्टि वाला तो था ही, अपने पिता से भी बहुत आगे बढ़कर साहसी, स्वातंत्र्यप्रिय एवं बहादुर योद्धा भी था।