बौद्ध स्मारक एवं बौद्ध स्थल पूरे भारत में बड़ी संख्या में मिले हैं और इनका मिलना इतिहास की दृष्टि से एक स्वाभाविक बात है किंतु झालावाड़ क्षेत्र की बौद्ध गुफाएं अपने आप में विशिष्ट हैं। ये भारत के इतिहास के एक भयानक मोड़ की गवाह हैं तथा आततायी हूणों के मालवा क्षेत्र पर आक्रमण करने तथा बौद्ध धर्म के राजस्थान एवं मालवा से विलुप्त हो जाने की क्रूर कहानी कहती हुई प्रतीत होती हैं। हूणों के आक्रमणों का बौद्ध धर्म पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ा। उन्होंने बौद्ध मन्दिरों तथा विहारों को लूटा और उन्हें ध्वस्त किया, जिनका पुनर्निर्माण नहीं हो सका।
शैव धर्म में समन्वय का प्रयास
ऐसा प्रतीत होता है कि हूणों के आक्रमण से घबराये हुए मालवा क्षेत्र के बौद्धों ने शैव धर्म के साथ समन्वय स्थापित कर अपने धर्म की रक्षा करने का भी प्रयास किया। झालावाड़ के जिला कलक्टर डॉ. जितेन्द्र कुमार सोनी ने वर्ष 2016 में पिड़ावा गांव के एक शिवमंदिर में ऐसा शिवलिंग खोजा है जिसमें नीचे का आधार परम्परागत शैव धर्म के अनुसार निर्मित है किंतु शिवलिंग की पिण्डी पर भगवान बुद्ध की प्रतिमा उत्कीर्ण है।
इस लिंग का काल निर्धारण नहीं किया जा सकता किंतु निकटवर्ती कोलवी, हात्यागौड़ तथा बिनायगा बौद्ध गुफाओं की उपस्थिति के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह लिंग हूणों की विनाशलीला के समय या कुछ पश्चात् का होना चाहिये।
यह आश्चर्य पूर्ण है कि इस सम्पूर्ण क्षेत्र में बौद्ध धर्म का हीनयान सम्प्रदाय उपस्थित था किंतु शिवलिंग के साथ बुद्ध मूर्ति का समन्वय, महायान वालों से भी दो कदम आगे बढ़कर उठाया गया कदम है। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार निकटवर्ती बारां जिले के कोषवर्द्धन का बौद्ध विहार एवं चैत्य, हीनयान सम्प्रदाय को समर्पित थे किंतु कोषर्वद्धन दुर्ग में लगा शिलालेख संस्कृत भाषा में है, हीनयान के हिसाब से उसे पालि भाषा में होना चाहिये था।
हर्षवर्द्धन कालीन स्मारक
सातवीं शताब्दी में राजस्थान पर हर्षवर्द्धन का शासन था। वह थाणेश्वर के वर्द्धन वंश का प्रतापी राजा था जिसने 606 ईस्वी से लेकर 648 ईस्वी तक शासन किया। उसका राज्य हिमालय से लेकर नर्बदा नदी तक विस्तृत था। इस प्रकार आधुनिक राजस्थान भी उसके शासन के अंतर्गत था। हर्ष यद्यपि स्थाण (भगवान शिव) का उपासक था तथापि उसने बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित होकर उसे प्रश्रय दिया। वह प्रत्येक पाँच वर्ष में प्रयाग में धर्म सम्मेलन आयोजित किया करता था जिसमें वह प्रथम दिन बुद्ध की, दूसरे दिन सूर्य की और तीसरे दिन भगवान शिव की पूजा किया करता था। वह सभी धर्मावलंबियों को दान देता था किंतु बौद्ध भिक्षुओं को अधिक मात्रा में धन प्रदान करता था। हर्ष के शासन काल में ही चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग ने भारत की यात्रा की। हर्ष ने ह्वेनसांग के आगमन पर महायान धर्म का विशेष सम्मेलन बुलाया जिसमें 18 देशों के राजा, महायान एवं हीनयान धर्म के 3000 भिक्षु, 300 ब्राह्मण, जैनाचार्य तथा नालंदा विहार के 1000 भिक्षुओं को बुलाया। इस सम्मेलन में भगवान बुद्ध की मूर्ति को सबसे आगे रखा गया तथा उसके पीछे भास्कर वर्मा ब्रह्मा की वेशभूषा में तथा हर्षवर्धन शक्र (इंद्र) की वेशभूषा बनाकर चले। हर्ष ने उड़ीसा में महायान धर्म के प्रचार के लिये 4 धर्म प्रचारक भी भेजे। हर्ष ने तिब्बत, चीन तथा मध्य एशिया के साथ सांस्कृतिक सम्पर्क स्थापित किये तथा चीन में अपने दूत भिजवाये। वह सूर्य एवं शिव का उपासक था फिर भी उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये प्रयास किया। बौद्ध धर्म को प्रश्रय दिये जाने के कारण हर्ष की सैन्य शक्ति में भी शिथिलता आ गई और हर्ष के बाद वर्द्धन वंश का भी पतन हो गया। हर्ष के काल में राजस्थान में बना कोई भी बौद्ध स्मारक चिह्नित नहीं किया जा सका है।
तेजी से पतन की ओर
हूणों के पराभव के बाद बौद्ध धर्म ने फिर से संभलने का प्रयास किया। उत्तर भारत के प्रबल सम्राट हर्षवर्द्धन द्वारा उन्हें प्रश्रय भी प्राप्त हो गया। सातवीं शताब्दी में जब चीनी बौद्ध भिक्षु भारत आया तब उसने भीनमाल नगर में एक बौद्ध विहार देखा था जिसमें 100 से अधिक भिक्षु रहते थे। यह राजस्थान में संभवतः बौद्धों के बुझते हुए दीपक की अंतिम चमक थी। हर्ष के बाद सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में राजपूतों का तथा अरब में तुर्कों का उत्कर्ष हुआ। हूण इन दोनों शक्तियों के बीच पिसकर नष्ट हो गये तथा राजपूत वंश भारत की राजनीति के मंच पर प्रमुख भूमिका में आ गये। राजपूतों को मुसलमानों से लोहा लेना था। इसलिये उनके राज्यों में बौद्ध धर्म को प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी। रक्तरंजित संघर्षों और हिंसा के उस विकट काल में अहिंसात्मक, निरीश्वरवादी बौद्ध धर्म के लिए कोई स्थान नहीं था।
पुष्कर में बौद्ध धर्म की पराजय
तीर्थराज पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर आयोजित होने वाले मेले में विशाल स्तर पर शास्त्रार्थ का आयोजन होता था जिसमें हिन्दू, जैन एवं बौद्ध आदि धर्मों के विद्धान आकर तर्क किया करते थे। ये आयोजन कब आरम्भ हुए और कब तक चलते रहे, इसका कोई विवरण नहीं मिलता। पहली शताब्दी ईस्वी में पुष्कर में बौद्धों की धाक जम गई। सम्भवतः छः-सात शताब्दियों तक वे अपना वर्चस्व बनाये रहे। कनिष्क के काल में (पहली शताब्दी ईस्वी) पुष्कर के बौद्ध भिक्षु मिहिगिरि ने वाराणसी के विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर बौद्ध धर्म की पताका फहराई। कनिष्क ने अपने दरबार में मिहिरगिरि का सम्मान किया। हिमगिरि, आर्य बुद्ध रक्षित एवं तिष्य रक्षिता ने वाराणसी में विपुल राशि का दान किया। हर्ष (606-648 ईस्वी) के समय में ये शास्त्रार्थ अपने चरम पर पहुंच चुके थे। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य (788-820 ईस्वी) ने आठवीं-नौंवी शताब्दी में बौद्धौं को शास्त्रार्थों के माध्यम से पराजित करने का काम आरम्भ किया, वे भी पुष्कर आये। शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म पर करारी चोट की जिससे जन सामान्य का रुझान बौद्ध धर्म के स्थान पर सनातन धर्म की ओर हो गया।
राजपूत काल में वैष्णव तथा शैव धर्म का उत्थान
अधिकांश राजपूत राजवंशों ने ब्राह्मण धर्म को प्रश्रय दिया। इस काल में कुमारिल, शंकराचार्य, रामानुज आदि आचार्यों ने ब्राह्मण धर्म का खूब प्रचार किया। कुमारिल भट्ट ने वेदों की प्रामाणिकता को न मानने वाले बौद्ध धर्म का खण्डन किया। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद अर्थात् ‘जीवात्मा तथा परमात्मा एक है’, के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। शंकराचार्य ने उपनिषदों को आधर बनाकर वैदिक धर्म का खूब प्रचार किया और बौद्ध धर्म के प्रभाव को समाप्त प्रायः कर दिया। शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों अर्थात् बद्रीनाथ, द्वारिका, रामेश्वरम् तथा जगन्नाथपुरी में चार मठ स्थापित किये। रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद का समर्थन किया जिसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्म, जीव तथा जगत् मूलतः एक होने पर भी क्रियात्मक रूप में एक-दूसरे से भिन्न हैं और कुछ विशिष्ट गुणों से युक्त हैं। इस युग के प्रमुख देवता विष्णु तथा शिव थे। इस युग में वैष्णव तथा शैव धर्म का खूब प्रचार हुआ। दक्षिण भारत में लिगांयत सम्प्रदाय का प्रचार हुआ। ये लोग शिवलिंग की पूजा करते थे। इस काल में शक्ति की भी पूजा प्रचलित थी। शक्ति के पूजक दुर्गा तथा काली की पूजा करते थे। तान्त्रिक सम्प्रदाय की भी इस युग में अभिवृद्धि हुई। ये लोग जादू-टोना, भूत-प्रेत तथा मन्त्र-तन्त्र में विश्वास करते थे। इस प्रकार अन्धविश्वास का प्रकोप बढ़ रहा था।
आठवीं शताब्दी ईस्वी में राजस्थान के बौद्धों की स्थिति
आठवीं शताब्दी ईस्वी में राजस्थान में प्रतिहारों का अभ्युदय हो रहा था। इस काल में भी बौद्ध धर्म किसी न किसी रूप में अवश्य बना हुआ था। 712 ई. में जैन साधु उद्योतन सूरि ने जालोर दुर्ग में बैठकर कुवलयमाला नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में हूण आक्रांता वराह मिहिर की प्रशंसा सम्पूर्ण धरती का स्वामी कहकर की गयी। वराह मिहिर के बारे में प्रसिद्ध है कि उसने नौ कोटि बौद्धों की हत्या की थी। अतः जैन साधु उद्योतन सूरि द्वारा उसे सम्पूर्ण धरती का स्वामी कहे जाने से यह अनुमान होता है कि आठवीं शताब्दी में बौद्धों एवं जैनों में वैमनस्य चरम पर था तथा उद्योतन सूरि ने बौद्धों को मारने वाले मिहिरकुल को समस्त धरती का स्वामी कहकर उसे पुरस्कृत किया।