Tuesday, December 3, 2024
spot_img

प्रतिहारकाल में बौद्ध स्मारक एवं मूर्तियां

राजस्थान में आठवीं से दसवीं शताब्दी तक का काल प्रतिहारों के उत्कर्ष का काल है। प्रतिहार स्वयं को भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण का वंशज मानते थे। गुप्तों की भांति प्रतिहारों ने भी भगवान विष्णु के मेदिनी उद्धारक वराह अवतार तथा लक्ष्मी द्वारा सेवित शेषशायी विष्णु की प्रतिमाएं और मंदिर बड़ी संख्या में बनवाये। फिर भी प्रतिहार अभिलेख बौद्ध धर्म का उल्लेख कई स्थानों पर करते हैं। ब्रिटिश संग्रहालय में रखे एक प्रतिहार कालीन अभिलेख में एक बौद्ध भिक्षु को दिये गये दान का उल्लेख है। प्रतिहारों के सत्ता आसीन होने से पूर्व 641 ईस्वी में जब जीनी यात्री व्हेनसांग ने भीनमाल की यात्रा की तो उस समय उसने भीनमाल के एक बौद्ध मठ का उल्लेख किया है, जिसमें 100 बौद्ध भिक्षु रहते थे किन्तु प्रतिहारों के काल में बौद्धधर्म हीन अवस्था को प्राप्त हो गया और उसके अनुयायियों की संख्या निरन्तर घटती जा रही थी। इस काल में बौद्ध धर्म की भांति जैन धर्म का प्रचार भी सीमित था।

गुप्तों की ही भांति प्रतिहारों का सांस्कृतिक इतिहास बहुत समृद्ध है। जालोर के प्रतिहारों का राज्य न केवल मारवाड़ अथवा राजस्थान अपितु कच्छ से लेकर बंगाल तक फैल गया। इसलिये आठवीं से दसवीं शताब्दी तक बने अधिकतर मंदिरों में महामारू शैली की विशिष्टताएं, लोक कलात्मक सहजता तथा भावानुकूल अलंकरण के साथ मानवीय जीवन्तता विद्यमान है। इस पूरे क्षेत्र में ऐसा कोई स्थान नहीं बचा जहां, गुर्जर प्रतिहारों ने कलात्मक मंदिर तथा बावड़ियां न बनवाई हों। इन मंदिरों में बौद्ध, गुप्त तथा गान्धार आदि प्रभावों से अलग हटकर प्रतिहारों की स्थापत्य एवं तक्षण कला की मांसलता, लालित्य, लोक कलात्मक सहजता, अलंकारिकता तथा जनजीवन की योग परक झांकी विशेष रूप से देखने को मिलती है।

ओसियां के पुराने मंदिर- सचियाय माता मंदिर, सूर्यमंदिर, तीनों हरिहर मंदिर, पीपलड़ा माता का मंदिर तथा महावीर मंदिर ई. 750 से ई. 825 तक के काल के हैं। ओसियां में बौद्ध कला, जैनकला तथा गुप्तकला का प्रतिहार कालीन वास्तु में समन्वय हुआ। इस संस्कृति की छाप आगे चलकर पूरे उत्तर भारत में दिखायी दी। खजुराहो में मंदिर कला का जो चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है उसका आधार प्रतिहार कालीन गुर्जर मारू अथवा महामारू शैली ने ही तैयार किया है। लाम्बा, बुचकला, मण्डोर तथा आभानेरी के मंदिर उसी काल के हैं। राजौरगढ़ तथा पारानगर नामों से जाना जाने वाला स्थान प्रतिहारों की राजस्थान को अंतिम उत्कृष्ट देन माना जाता है।

छोटी खाटू में बौद्ध मूर्ति

छोटी खाटू में अंग्रेजी लिपि के ‘एल’आकार की प्रतिहारकालीन बावड़ी स्थित है। प्रवेश पर सीढ़ी से उतरते ही इस विशाल बावड़ी के बायें आले में जटाजूट धारी शिव मस्तक तथा कुछ अन्तराल पर आयताकार शिला पट्ट पर एक लेख उत्कीर्ण है। इस लेख में 9 पंक्तियां हैं जो कुटिल लिपि में है तथा 9वीं शताब्दी ईस्वी की मानी जाती है। लेख में कहा गया है कि मरूभूमि में इस बावड़ी का निर्माण करवाया गया। इस लेख के दोनों ओर घट पल्लव युक्त सुन्दर अर्द्ध स्तंभ बने हैं। इस बावड़ी में तीन मंजिला भवन बना हुआ है। दो स्तरों के मध्यवर्ती भाग में दोनों ओर घट पल्लव, अर्द्ध कमलयुक्त विशालाकाय स्तम्भों के बीच अलंकरण युक्त रथिकायें हैं जिन पर सुन्दर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। स्तंभों के निचले भाग पर द्वारपाल एवं मकर वाहिनी गंगा तथा कच्छपवाहिनी यमुना देवियां अंकित हैं। रथिकाओं की द्वार शाखा भी पत्रलता युक्त है तथा निचले भाग में गंगा एवं यमुना अंकित हैं। रथिकाओं का ऊपरी हिस्सा शिखराकार मंदिरों जैसा है। यहां स्थित नाथ संप्रदाय के मठ में प्राचीन मूर्तियों का अद्भुत खजाना स्थित है। अनेक मूर्तियां मठ की दीवारों में चुनी गई हैं। इनमें वैष्णव धर्म से लेकर शैवमत, वाममार्गी मत, बौद्ध व जैन धर्मों की मूर्तियां सम्मिलित हैं। इनमें बौद्ध भिक्षुक, सात अश्वों के रथ पर सवार भगवान भुवन भास्कर, एक हाथ में सुरा पात्र तथा दूसरे में धन मंजूषा लिये हुए कुबेर, नाग कन्यायें, मत्स्य बालायें, विभिन्न मुद्राओं में कामरत नर-नारी तथा अप्सरायें आदि देखते ही बनती हैं। गांव में ऊंचे पठार पर स्थित प्राचीन जागीरदार के यहां भी अनेक प्राचीन मूर्तियां मिली हैं जो दीवारों में उल्टी-सीधी चुनी हुई हैं। ये मूर्तियां विभिन्न देवालयों से लाई गई प्रतीत होती है।

राजस्थान से बौद्ध धर्म का अंत

राजस्थान से बौद्ध धर्म का पूरी तरह अंत कब हुआ, कहना कठिन है किंतु यह निश्चित है कि मुसलमानों की विजय का बौद्ध धर्म पर बड़ा घातक प्रहार पड़ा। बौद्ध धर्म अहिंसा का धर्म था परन्तु राष्ट्रीय संघर्ष के इस युग में ऐसे धर्म के लिए कोई स्थान नहीं था। यद्यपि बौद्ध धर्म का अधःपतन पहले ही से आरंभ हो गया था परन्तु मुसलमान आक्रमणकारियों ने उनके अवशिष्ट प्रभाव को भी जो थोड़ा बहुत बंगाल में रह गया था, समाप्त कर दिया। प्राच्य विद्या संस्थान जोधपुर में एक चर्मपत्र उपलब्ध है जिस पर आर्य महाविद्या नामक बौद्ध ग्रंथ पाल शैली में चित्रित है। यह ग्रंथ किस शताब्दी का है, ज्ञात नहीं है।

सोलहवीं शती के स्मारक पर बौद्ध धर्म का प्रभाव

अलवर रेलवे स्टेशन के निकट फतहजंग गुम्बद बनी हुई है। इसका निर्माण ई.1547 में खानजादा फतहजंग खान की स्मृति में करवाया गया था। इसकी गुम्बदनुमा छतरी पर बौद्ध स्तूपों का प्रभाव दृष्टिगत होता है। जयपुर के निकट चाकसू से भी एक बौद्ध मूर्ति का सिर मिला है जो कि सोलहवीं शताब्दी का प्रतीत होता है। यहां से हिन्दू धर्म से सम्बन्धित मूर्तियां बड़ी संख्या में मिली हैं जबकि बौद्ध मूर्ति केवल एक। इससे अनुमान होता है कि सोलहवीं शताब्दी में जयपुर के आसपास बौद्ध धर्म का प्रभाव नहीं था।

वर्तमान समय में बौद्ध धर्म की स्थिति

2011 की जनगणना के अनुसार राजस्थान की कुल जनसंख्या 6,85,48,437 में से हिन्दुओं की संख्या 6,06,57,103 (88.49 प्रतिशत), मुसलमानों की संख्या 62,15,377 (9.07 प्रतिशत), ईसाईयों की संख्या 96,430 (0.14 प्रतिशत), सिक्खों की संख्या 8,72,930 (1.27 प्रतिशत), जैनों की संख्या 6,50,493 (0.91 प्रतिशत), बौद्धों की संख्या 12,185 (0.02 प्रतिशत) तथा अन्य धर्मावलंबियों की संख्या 4,676 (0.01प्रतिशत) है। राज्य में 67,713 (0.10 प्रतिशत) लोगों ने अपने धर्म की सूचना नहीं लिखवाई। स्पष्ट है कि वर्तमान में राजस्थान में बौद्ध धर्म लुप्त प्रायः है।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source