युग प्रवर्तक राव जोधा सचमुच ही थार रेगिस्तान में नवीन युग का प्रवर्तन करने में सफल रहा। यदि उस काल में राव जोधा जैसा संघर्षशील राजा न हुआ होता तो थार मरुस्थल का यह भाग भी उसी तरह मुस्लिम बहुल क्षेत्र में बदल जाता जिस प्रकार थार रेगिस्तान में स्थित सिंध तथा धाट के क्षेत्र मुस्लिम बहुल क्षेत्र बनकर अपनी मूल संस्कृति गवां बैठे।
जोधा जीवन भर शत्रुओं से घिरा रहा, फिर भी वह अपने अधिकांश उद्देश्यों में सफल हो गया। यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। जीवन की छलनाएं हर समय उसके पीछे लगी रहीं, बाधाओं ने कभी भी उसका पीछा नहीं छोड़ा किंतु वह समस्त छलनाओं को जीतकर और समस्त बाधाओं को चीरकर भारत के इतिहास में उज्ज्वल नक्षत्र की तरह दैदीप्यमान हुआ। उसने अपने युग के समक्ष हार नहीं मानी अपितु अपने बलबूते पर अपने युग का निर्माण किया।
असाधारण धैर्यशील
युग प्रवर्तक राव जोधा वीर और साहसी होने के साथ ही असाधारण धैर्यशील था। वह संघर्षों की आग में तपकर बड़ा हुआ था। इसलिये विपत्ति में घबराता नही था। उसने अपने पिता के साथ युद्ध के मैदानों में रहकर तलवार चलाना सीखा और मेवाड़ जैसी प्रबल रियासत में घनघोर षड़यंत्रों के बीच राजनीति की शिक्षा प्राप्त की।
वह असाधारण घुड़सवार था। इसी कारण अनेक बार उसके प्राणों की रक्षा हुई। असाधारण परिस्थिति में पिता के मारे जाने पर भी वह घबराया नहीं वरन् पीछा करने वाले मेवाड़ सैन्य से वीरता पूर्वक लड़ता हुआ चित्तौड़ से निकल आया। सिसोदिया राजकुमार चूण्डा से छुटकारा पाने के लिये वह जांगलू के घनघोर मरुस्थल में जा छिपा तथा वहाँ की कठिनाइयों को झेलता रहा।
असाधारण योद्धा
जोधा असाधारण योद्धा था। उसने जीवन भर युद्ध किया। पूरे पंद्रह साल तक वह मण्डोर प्राप्त करने के लिये जूझता रहा। वह भूखों रहा, खेतों में छिपकर रहा। बाजरे के सिट्टे खाकर जीवित रहा किंतु राज्य प्राप्ति का विचार मन से न जाने दिया। जब मण्डोर पर अधिकार हो गया तब भी उसने संघर्ष का मार्ग नहीं त्यागा।
उसने मेवाड़ राज्य के गोड़वाड़ प्रदेश में लूटमार करके अपने राज्य की समृद्धि के प्रयास किये। युग प्रवर्तक राव जोधा ने एक-एक करके अपने समस्त पड़ौसियों भाटी, सांखला, जोहिया, परिहार, चौहान तथा तुर्कों को परास्त किया। वह हिसार के सूबेदार तक से जा भिड़ा। यहाँ तक कि उसने बहलोल लोदी के सेनापति सारंग खाँ को परास्त करके युद्ध के मैदान में मार डाला। उसने 15 साल राज्य प्राप्त करने में लगाये तो 35 साल उसका विस्तार करने में लगाये।
मित्र बनाने की असाधारण प्रतिभा
जोधा में मित्र बनाने की असाधारण प्रतिभा थी। उसने मेवाड़ की राजमाता तथा अपनी बुआ हंसाबाई का विश्वास कभी नहीं खोया। इस कारण हंसाबाई जीवन भर उसके पक्ष में रही। हंसाबाई के परामर्श से ही कुम्भा ने जोधा को उसका राज्य लौटाने का मन बनाया। हंसाबाई की मध्यस्थता के कारण ही जोधा की पुत्री शृंगार देवी का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल से होना संभव हुआ। जोधा ने अपनी मौसी जो कि रावत लूणा की ठकुरानी थी, का विश्वास इस सीमा तक अर्जित कर रखा था कि ठकुरानी ने रावत लूणा को तोषाखाना में बंद करके, रावत के घोड़े चूण्डा को सौंप दिये।
जोधा ने उस काल के सर्वाधिक आदरणीय व्यक्तियों में से एक, हरभू सांखला का विश्वास अर्जित करके उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया। इतना ही नहीं हरभू सांखला जैसे पूज्य व्यक्ति ने जोधा के लिये युद्ध करते हुए अपने प्राण न्यौछावर किये।
समय की असाधारण समझ
जोधा में अपने समय की असाधारण समझ थी। इस कारण उसे समस्त कार्यों में सफलता मिली। चित्तौड़ से समय पर निकल आना, चूण्डा की मृत्यु हो जाने पर अपने लिये अनुकूल समय आया जानकर मण्डोर पर भीषण प्रहार करना तथा महाराणा के आक्रमण के समय उससे संधि के लिये तत्पर होना और उसी समय अपनी पुत्री का विवाह महाराणा के पुत्र से करना, जोधा के कई ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य थे जिनके कारण सफलता उसके चरण चूमती चली गई।
जोधा में अपने समय से आगे की भी सूझ थी। जब मण्डोर पर अधिकार हो गया तो वह मण्डोर के भरोसे ही न बैठा रहा। वह समझता था कि उसकी राजधानी सामरिक रूप से उतनी सुदृढ़ नहीं है जितनी कि होनी चाहिये। इसलिये मण्डोर पर अधिकार करने के 6 वर्ष बाद ही उसने मेहरानगढ़ दुर्ग तथा जोधपुर नगर की नींव रखी। यह पहाड़ी दुर्ग शत्रुओं के लिये अजेय था।
जोधा में भविष्य को भांपने की भी असाधारण समझ थी। इसलिये उसने समय रहते ही बीका से वचन ले लिया कि वह बीकानेर राज्य में रहेगा तथा जोधपुर राज्य पर जोधा के अन्य पुत्रों में से किसी का अधिकार होगा। यदि जोधा इस शपथ को नहीं लेता तो बीका निश्चित रूप से जोधपुर पर अधिकार कर लेता। इससे दोनों राज्यों का स्वतंत्र विकास अवरुद्ध हो जाता।
असाधारण भाग्य का धनी युग प्रवर्तक राव जोधा
जोधा भाग्य का प्रबल धनी था। रणमल ने उसे अपनी हत्या से पहले ही चित्तौड़ के दुर्ग से बाहर निकाल दिया था। रणमल की हत्या की सूचना भी उसे समय रहते मिल गई जिससे उसे बच निकलने का समय मिल गया। चित्तौड़ से कपासन के बीच चूण्डा ने जोधा को घेर लिया किंतु जोधा बच निकलने में सफल रहा।
चूण्डा के पास केवल 700 सैनिक थे जो पल-पल छीजते रहे किंतु जोधा अंत में सात आदमियों के साथ जांगलू के भयानक मरुस्थल तक पहुंचने में सफल रहा। जोधा को अपनी बुआ हंसाबाई की सामयिक सहायता प्राप्त हुई। हंसाबाई ने महाराणा से जोधा की अनुशंषा की और महाराणा ने मण्डोर की तरफ से ध्यान हटा लिया। फलतः कुछ ही समय बाद, जोधा ने अपने खोये हुए पैतृक राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने जोधपुर के दुर्ग तथा नगर की स्थापना की।
लक्ष्य पर असाधारण पकड़
जोधा जीवन में कभी अपने लक्ष्य से नहीं चूका। वह जीवन भर शक्ति और संघर्ष की आराधना करता रहा। राज्य प्राप्त करते ही जोधा ने राज्य की स्थिति दृढ़ करने पर ध्यान केन्द्रित किया और साथ ही राज्य का विस्तार भी किया। जोधा के सौभाग्य से उसके पुत्र भी बड़े पराक्रमी हुए और उन्होंने भी राठौड़ राज्य की उन्नति में हाथ बंटाया। वस्तुतः राव जोधा ही मरुस्थल का पहला प्रतापी राजा हुआ।
मेवाड़ से मैत्री का अद्भुत निर्णय
कुम्भा द्वारा राव रणमल की हत्या करने की अनुमति देने एवं 15 साल तक मण्डोर राज्य को अपने अधिकार में रखने के कारण यह एक कठिन बात थी कि जोधा, कुम्भा को क्षमा कर देता किंतु जीवन भर के संघर्ष ने जोधा को परिपक्व राजनीतिज्ञ बना दिया था।
जोधा जानता था कि यदि मेवाड़ के साथ सम्बन्ध नहीं सुधारे गये तो वह अपने लिये स्थाई और सशक्त राज्य का निर्माण नहीं कर सकता। इसलिये उसने अपनी पुत्री का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल से करके शत्रुता को समाप्त करने की पहल की। इस मित्रता के कई सुखद परिणाम निकले। मेवाड़ की तरफ से निश्चिंत होकर जोधा को अपने राज्य का निर्माण करने का समय मिल गया।
मेवाड़ से अति शीघ्र मित्रता का हाथ बढ़ाने के पीछे जोधा के मन में और भी कई विचार थे। जब रणमल, मेवाड़ की ओर से मालवा एवं गुजरात के सुल्तानों से लड़ रहा था तो जोधा ने उत्तर और मध्य भारत की राजनीति का अच्छा अध्ययन कर लिया था।
जोधा जानता था कि भले ही मेवाड़, हंसाबाई के प्रभाव के कारण अब मारवाड़ राज्य से छेड़-छाड़ न करे किंतु मालवा एवं गुजरात के सुल्तान इस बात का भरसक प्रयास करेंगे कि वे कमजोर मारवाड़ राज्य पर अधिकार कर लें और ऐसा करना उनके लिये कुछ कठिन भी नहीं होगा। अतः आवश्यकता इस बात की नहीं थी कि मेवाड़, मारवाड़ के प्रति शत्रुवत् न रहकर उदासीन अथवा निरपेक्ष रहे रहे अपितु आवश्यकता इस बात की थी कि मेवाड़ का सक्रिय सहयोग, मारवाड़ को प्राप्त हो।
जोधा की पहल पर मारवाड़ और मेवाड़ के बीच दुबारा से स्थापित हुई मित्रता, कुम्भा की मृत्यु के बाद भी काम आई। 1527 ई. में जब कुम्भा का पुत्र सांगा, बाबर से लड़ने के लिये खानवा के मोर्चे पर गया तो सांगा ने हिन्दू राजाओं का एक संगठन बनाया। जोधा के वंशज गांगा और मालदेव भी उस संगठन में सम्मिलित होना स्वीकार करके, सांगा की तरफ से युद्ध के मोर्चे पर खानवा पहुंचे। कुछ पुस्तकों में वर्णन मिलता है कि सांगा की तरफ से बाबर के विरुद्ध पहली तोप मालदेव ने ही दागी थी। मेवाड़ से मैत्री का अद्भुत निर्णय सचमुच ही युग प्रवर्तक राव जोधा का जीवन बदलने वाला सिद्ध हुआ।
निर्णय बदलने की क्षमता
जोधा में अपने निर्णय को समय रहते ही बदलने की क्षमता थी। उसने छापर-द्रोणपुर अपने पुत्र जोगा को दिया किंतु जब जोधा ने देखा कि जोगा राज्य करने में असक्षम है तो उसने जोगा के स्थान पर बीदा को छापर-द्रोणपुर का शासक नियुक्त किया।
शक्ति का संचय
राजनीति का एक शाश्वत सिद्धांत है- ‘राजत्व बन्धुत्व को नहीं जानता।’ जोधा इस सिद्धांत को अच्छी तरह समझता था। इसलिये उसने अपनी पुत्री का विवाह मेवाड़ के राजकुमार के साथ करके अपने राज्य को सुरक्षित नहीं समझ लिया अपितु अपनी शक्ति का संचय भी लगातार जारी रखा। वह जानता था कि राज्य को शक्ति के सहारे ही सुदृढ़ एवं स्थाई बनाया जा सकता है न कि वैवाहिक सम्बन्धों के माध्यम से।
जोधा का निधन
राव जोधा के निधन की तिथियों में अंतर मिलता है। रेउ ने जोधा का निधन 16 अप्रेल 1488 को होना बताया है। ओझा ने जोधा के निधन की तिथि 1489 ई. लिखी है। गोपीनाथ शर्मा ने 1489 ई. तक जोधा द्वारा राज्य किया जाना लिखा है। सामान्य मान्यता है कि जोधा ने 1489 ई. तक राज्य किया। जोधा का निधन उसकी अपनी नई राजधानी जोधपुर में हुआ।
इस प्रकार राव जोधा ने 73-74 वर्ष की आयु पाई। जीवन के प्रारम्भिक 23 वर्ष तक वह अपने पिता की छत्रछाया में राजनीति और राजधर्म का प्रशिक्षण लेता रहा। उसके बाद 15 वर्ष तक वह अपने पिता का राज्य वापस प्राप्त करने के लिये घनघोर संघर्ष और विपत्तियों का सामना करता रहा। तत्पश्चात् 35 वर्ष तक वह राज्य का विस्तार और उन्नति करने में लगा रहा।
जोधा के निधन के समय मारवाड़ राज्य
राव जोधा के निधन के समय मारवाड़ राज्य में मण्डोर, जोधपुर, सोजत, पाली, फलौधी, पोकरण, मेड़ता, महेवा, भाद्राजून, गोड़वाड़ का कुछ भाग, जैतारण, शिव, सिवाणा, सांभर, अजमेर और नागौर आदि नगर एवं उनसे लगते हुए गांव थे। बीकानेर और छापर-द्रोणपुर उसके पुत्रों के अधिकार में स्वतंत्र राज्य थे।
इस प्रकार मारवाड़ राज्य की पश्चिमी सीमा जैसलमेर राज्य तक, पूर्वी सीमा आम्बेर राज्य तक, दक्षिणी सीमा मेवाड़ तक तथा उत्तरी सीमा हिसार तक पहुंच गई थी। कर्नल टॉड ने जोधा के राज्य का विस्तार 80 हजार मील की लम्बाई-चौड़ाई में विस्तृत होना बताया है।
जोधा द्वारा दान दिये गये गांव
युग प्रवर्तक राव जोधा ने अपने जीवन में अनेक गांव दान किये थे इनमें से 24 गांवों की सूची इस प्रकार से है- 1. कंवलियां, 2. खगड़ी, 3. रेपडावास, 4. साकड़ावास, 5. मथाणिया, 6. बेवटा, 7. बडलिया, 8. चांचलवा, 9. जटियावास कलां, 10. धोलेरिया, 11. खाराबेरा, 12. बासणी, 13. मोडी बड़ी, 14. तोलेयासर, 15. तिवरी, 16. मांडियाई खुर्द, 17. बासणी सेपां, 18. थोब, 19. कोलू-पुरोहितों का वास, 20. खोड़ेचां, 21. लूंडावास, 22. बासणी नरसिंघ, 23. साटीका कलां। 24. जोधावास।
राव जोधा के जीवन भर के संघर्षों एवं उपलब्धियों के आधार यह निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि युग प्रवर्तक राव जोधा न केवल अपने समय के राजाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखता था अपितु बाद की सदियों में भी राव जोधा के वंशजों ने उसके काम को आगे बढ़ाया।