जब सफदरजंग अवध को चला गया तब मराठों की सेना ने मल्हारराव होलकर के पुत्र खांडेराव के नेतृत्व में राजपूताने में पैर रखा। वे सीधे जयपुर रियासत में जा घुसे और वहाँ के राजा माधोसिंह से कर मांगा। माधोसिंह से कर लेकर मराठे भरतपुर रियासत की ओर बढ़े। राजा सूरजमल भरतपुर की रक्षा का भार जवाहरसिंह को सौंपकर स्वयं कुम्हेर के दुर्ग में मोर्चाबंदी करके बैठ गया। यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि कुछ दिन पहले रूहलों के विरुद्ध सफदरजंग द्वारा किये गये अभियान में सूरजमल तथा मराठे एक होकर लड़े थे किंतु आज वही मराठे, सूरजमल द्वारा सफदरजंग को दी गई सहायता के लिये सूरजमल को दण्डित करने आ पहुंचे थे। वस्तुतः इसके पीछे मराठों की धन-लिप्सा काम कर रही थी। मराठों को ज्ञात था कि सूरजमल दिल्ली से अथाह खजाना लूट कर लाया है, मराठों को वह खजाना चाहिये था।
सूरजमल ने खांडेराव के समक्ष मित्रता का प्रस्ताव भिजवाया किंतु होलकर के सेनापति रघुनाथराव ने सूरजमल के समक्ष दो करोड़ रुपयों की मांग रखी। सूरजमल के मंत्री रूपराम ने चालीस लाख रुपये देने स्वीकार किये किंतु मल्हारराव होलकर जो उस समय जयपुर में था, ने कहलवाया कि जाटों को चाहिये कि वे दो करोड़ रुपयों से अधिक राशि दें। इस पर नाराज होकर सूरजमल ने मराठों के सेनापति रघुनाथराव को तोप के पांच गोले और थोड़ा सा बारूद भिजवाया और कहलवाया कि या तो चालीस लाख रुपये ले ले या फिर परिणाम भुगतने को तैयार रहे।
इस पर जनवरी 1754 में मराठों ने कुम्हेर को घेर लिया। मुगल सेना भी उनके साथ हो गई। सूरजमल के शत्रुओं की सेना में इस समय 80 हजार सैनिक थे। मराठों ने कुम्हेर के चारों ओर पंद्रह मील के घेरे में समस्त फसलें जलाकर राख कर दीं। कुम्हेर को जाने वाले समस्त रास्तों को बंद कर दिया तथा होडल पर अधिकार कर लिया। इमादुलमुल्क, खाण्डेराव, रघुनाथराव तथा मल्हारराव की सेनाओं ने सूरजमल को बुरी तरह घेर लिया। मुगलों और मराठों के दुश्मन हो जाने तथा जयपुर के तटस्थ हो जाने के कारण, राजा सूरजमल पूरे उत्तर भारत में अकेला पड़ गया किंतु उसने हिम्मत नहीं हारी। जयपुर नरेश माधोसिंह नहीं चाहता था कि जिस राज्य को उसके पुरखों ने अपने हाथों से स्थापित किया था, उस राज्य को नष्ट करने में वह योगदान करे। दूसरी तरफ वह मराठों को भी नाराज नहीं करना चाहता था। इसलिये उसने एक छोटी सी कच्छवाहा सेना मराठों के साथ भेज दी थी। राजा सूरजमल ने चार माह तक इस सम्मिलित सेना से लोहा लिया।
एक दिन जब खांडेराव दुर्ग के बाहर खुदवाई गई खंदकों का निरीक्षण कर रहा था, दुर्ग के भीतर स्थित तोप से चले एक गोले से खांडेराव मारा गया। उसकी नौ रानियां उसके शव के साथ सती हो गईं। उसकी रानी अहिल्याबाई गर्भवती होने के कारण सती नहीं हो सकी। पुत्र शोक में पागल होकर मल्हारराव ने प्रतिज्ञा की कि वह जाटों का समूल नाश करेगा। अब मराठों ने कुम्हेर पर हो रहे आक्रमणों को भयानक बना दिया। ऐसी स्थिति में सूरजमल की रानी हँसिया ने रूपराम के पुत्र तेजराम कटारिया को सूरजमल की पगड़ी और एक पत्र देकर ग्वालियर के सिंधिया राजा को भेजा। उस समय सिंधिया, होलकर के साथ था। जब सिंधिया को रानी हँसिया का प्रस्ताव मिला तो उसने बदले में अपनी पगड़ी, एक उत्साहवर्द्धक पत्र तथा अपनी कुलदेवी के प्रसाद का एक बिल्वपत्र रानी को भिजवाया। जब हँसिया के पत्रवाहक और सिंधिया के बीच हुए पत्र व्यवहार की जानकारी मल्हारराव को हुई तो उसके हौंसले टूट गये।
जब मराठे, जाटों पर पर्याप्त दबाव नहीं बना पाये तो वजीर इमादुलमुल्क ने दिल्ली से सहायता मंगवाई। बादशाह को लगा कि यदि मराठे, कुम्हेर को तोड़ लेंगे तो जाटों की अपार सम्पत्ति मराठों के हाथ लग जायेगी। इसलिये उसने अतिरिक्त सेना नहीं भिजवाई। इन सब कारणों से मराठों को बाजी अपने हाथ से जाती हुई लगी। उन्होंने सूरजमल से संधि कर ली। सूरजमल ने रूपराम कटारिया के माध्यम से मराठों को आश्वासन दिया कि वह मराठों को तीन साल में तीस लाख रुपये देगा किंतु उसने केवल दो लाख रुपये ही दिये। मराठे अपना घेरा उठाकर दक्कन को चले गये। इस सफलता से सूरजमल की धाक जम गई। मुगल वजीर इमादुलमुल्क अपना सिर धुनता हुआ दिल्ली चला गया जहाँ उसने बादशाह अहमदशाह की आंखें फोड़कर उसे कैद में डाल दिया और उसकी हत्या करवा दी।
नजीब खां से संधि
मराठों के जाते ही सूरजमल और जवाहरसिंह ने पलवल और बल्लभगढ़ पर अधिकार कर लिया। ये क्षेत्र उस समय मराठों के अधिकार में चल रहे थे। जून 1755 के मुगल सेनापति नजीब खां ने गंगा-यमुना दो-आब के उन क्षेत्रों को वापस लेने के लिये अभियान किया जिन पर सूरजमल ने अधिकार कर लिया था। इस पर सूरजमल ने नजीब खां के पास संधि का प्रस्ताव भिजवाया तथा दोनों पक्षों के बीच संधि हो गई। इस संधि की शर्तें इस प्रकार थीं-
1. अलीगढ़ जिले में जिन क्षेत्रों पर राजा सूरजमल का अधिकार था, वे सूरजमल के पास ही रहेंगे।
2. इन जमीनों पर स्थायी राजस्व छब्बीस लाख रुपये तय हुआ जिनमें से अठारह लाख रुपये उन जागीरों के नगद मुआवजे के कम किये जाने थे, जो अहमदशाह के शासनकाल में खोजा जाविद खां ने सूरजमल के नाम कर दी थीं परंतु उन दिनों की निरंतर अशांति के कारण जिन्हें बाकायदा हस्तान्तरित नहीं किया जा सका था।
3. सूरजमल सिकन्दराबाद के किले और जिले को खाली कर देगा जो मराठों ने उसे दिया था।
4. बाकी आठ लाख रुपयों में से जो कि शाही राजकोष को मिलने थे, सूरजमल दो लाख रुपये डासना-सन्धि पर हस्ताक्षर करते समय और बाकी छः लाख एक साल में चुका देगा।
राजा बदनसिंह का निधन
आंखों की ज्योति खराब हो जाने के कारण बदनसिंह ने राजकार्य सूरजमल पर छोड़ रखा था। जीवन के अन्तिम दिनों में राजा बदनसिंह सहार चला गया जहाँ 7 जून 1756 को उसकी मृत्यु हो गई।