Saturday, July 27, 2024
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राजकुमार के रूप में सूरजमल के कार्य

बीस वर्ष तक राज्य का संचालन करने के बाद अर्थात् 1742 ई. के लगभग, राजा बदनसिंह की आंखों की ज्योति घटने लगी। अतः उसने राज्य विस्तार, सैन्य संगठन तथा राजनैतिक वार्त्ताओं के अधिकार अपने ज्येष्ठ पुत्र सूरजमल को सौंप दिये तथा स्वयं कौमी परिषद के साथ बैठकर राज्य का आन्तरिक प्रबंध करने लगा। ई.1745 में राजकुमार प्रतापसिंह की अचानक मृत्यु हो गई तथा राजा बदनसिंह राज्य कार्य से पूरी तरह विरक्त हो गया। इस प्रकार ई.1745 में सूरजमल राज्य का एकमात्र वास्तविक शासक बन गया किंतु पिता के जीवित रहते उसने स्वयं को राजा घोषित नहीं किया।

चन्दौस युद्ध में फतहअली खां की सहायता

ई.1745 में राजकुमार सूरजमल दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह की तरफ से, अली मुहम्मद रुहेले के विरुद्ध जाटों की एक सेना लेकर गया। इस लड़ाई में सूरजमल ने अपनी बहादुरी की धाक जमा ली। अगले वर्ष ई.1746 में सूरजमल ने असद खाननजाद के विरुद्ध सूबेदार फतहअली खां की मदद की और फतहअली खां अपनी जागीर वापस लेने में सफल रहा। सूरजमल ने चन्दौस में असद की सेना को हरा दिया। असद युद्ध में मारा गया। चन्दौस की लड़ाई से सूरजमल बहुत सा धन लेकर लौटा। वर्तमान में चन्दौस, अलीगढ़ जिले में स्थित है।

जयपुर नरेश ईश्वरीसिंह की सहायता

ई.1743 में जयपुर नरेश जयसिंह की मृत्यु हो गई तथा उसके पुत्रों ईश्वरीसिंह तथा माधोसिंह में राज्याधिकार को लेकर युद्ध हुआ। उदयपुर के महाराणा ने छोटे पुत्र माधोसिंह का पक्ष लिया क्योंकि माधोसिंह, उदयपुर की राजकुमारी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था, जो राजा जयसिंह को ब्याही गई थी। राजा बदनसिंह ने राजकुमार सूरजमल को आदेश दिया कि वह जयपुर के बड़े राजकुमार ईश्वरीसिंह की सहायता के लिये सेना लेकर जयपुर जाये। सूरजमल 10 हजार घुड़सवार, 2 हजार पैदल और 2 हजार बर्छेबाज लेकर कुम्हेर से जयपुर गया। ईश्वरीसिंह ने राजा सूरजमल को अपने बराबर का सम्मान दिया। 21 अगस्त 1748 को ईश्वरीसिंह तथा माधोसिंह की सेनाओं में युद्ध आरम्भ हुआ। तीन दिन चले इस युद्ध में सूरजमल ने अद्भुत पराक्रम का परिचय दिया तथा उसने अपनी तलवार से पचास शत्रु सैनिकों को अकेले ही मार डाला तथा 160 शत्रु सैनिकों को घायल किया। इस कारण सूरजमल की ख्याति मराठों और राजपूतों में लड़ाका वीर के रूप में हो गई। इस युद्ध को बगरू का युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में ईश्वरीसिंह विजयी रहा।

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सफदरजंग से मित्रता

ई.1748 में दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह की मृत्यु हो गई। उस समय उसका पुत्र अहमदशाह पानीपत में था। उन दिनों नवाब सफदरजंग उसके साथ था। सफदरजंग ने अहमदशाह को नया बादशाह घोषित कर दिया। अहमदशाह ने सफदरजंग को अपना वजीर घोषित कर दिया। उस समय मुहम्मदशाह का वजीर निजामुलमुल्क जीवित था। इसलिये नये वजीर सफदरजंग ने सूरजमल से सहयोग मांगा। सूरजमल ने आरम्भ में तो उसका सहयोग किया किंतु जब फरीदाबाद के चौधरी चरणदास और उसका पुत्र बलरामसिंह फरीदाबाद के मुगल अधिकारी मुर्तजा को धता बताकर सूरजमल की शरण में आ गये तो सूरजमल ने उन दोनों को अभय प्रदान किया तथा मुर्तजा खां को मार कर फरीदाबाद परगने पर अधिकार जमा लिया। नवाब सफरदरजंग ने सूरजमल को पत्र लिखा कि वह फरीदाबाद से अपना कब्जा हटा ले किंतु सूरजमल ने ऐसा करने से मना कर दिया। इस पर सफदरजंग सेना लेकर सूरजमल पर चढ़ आया। सूरजमल भी अपनी सेना लेकर तैयार हो गया। इसी समय सफदरजंग को सूचना मिली कि रूहेलों ने उसके सूबे अवध पर हमला बोल दिया है। इसलिये सफदरजंग अवध की तरफ चला गया और उसने सूरजमल से संधि की बात चलाई। इस संधि के बाद सफदरजंग एवं सूरजमल में फिर से मित्रता हो गई। राजा सूरजमल तथा उसके बख्शी को बादशाह अहमदशाह की ओर से खिलअतें प्रदान की गईं।

रूहेलों के विरुद्ध पहला अभियान

इस संधि के कुछ समय बाद रूहलों के नेता अहमदशाह बंगश ने सफदरजंग के प्रतिनिधि नवलराय को मार डाला और उसकी सेना को खुदागंज से बाहर धकेल दिया। रूहलों के हाथ बहुत सारा धन लगा। इस पर सफदरजंग ने रूहेलों के विरुद्ध अभियान किया। इस अभियान में सूरजमल ने सफदरजंग का साथ दिया। उसने अहमद बंगश की राजधानी फर्रूखाबाद पर अधिकार कर लिया। रूहेलों ने सूरजमल से मित्रता करने का प्रस्ताव भिजवाया किंतु सूरजमल ने उनके दूत को यह कहकर लौटा दिया कि मैं सफदरजंग को वचन दे चुका हूँ। सफदरजंग और रूहेलों के बीच हुए युद्ध में जाटों ने सफदरजंग के प्राणों की रक्षा की किंतु इस युद्ध का अंतिम परिणाम नहीं निकला। इस प्रकार सूरजमल ने जाट राजनीति को विश्वसनीय और पक्की बनाया। इस मामले में वह अपने पूर्ववर्ती जाट नेता चूड़ामन से बिल्कुल उलट था।

मीर बख्शी पर विजय

20 जून 1749 को जोधपुर नरेश महाराजा अभयसिंह की मृत्यु हो गई। जोधपुर राज्य पर अधिकार को लेकर अभयसिंह के पुत्र रामसिंह तथा अभयसिंह के भाई बख्तसिंह में में युद्ध ठन गया। मुगल बादशाह अहमदशाह ने बख्तसिंह का पक्ष लिया तथा मीर बख्शी सलाबतजंग को 18 हजार सैनिक देकर बख्तसिंह की सहायता के लिये भेजा। मीर बख्शी ने निश्चय किया कि लगे हाथों जाटों पर धावा बोलकर उनसे आगरा और मथुरा के उन सूबों को फिर से छीन ले जो जाटों ने हाल ही के दिनों में हथिया लिये थे। उसने नीमराना के दुर्ग पर अधिकार कर लिया जो जाटों के अधिकार में था। इस पर सूरजमल ने अपना दूत मीर बख्शी से वार्त्ता करने के लिये भेजा किंतु मीर बख्शी ने सूरजमल के दूत से बात नहीं की। जब मीर बख्शी सराय सोमाचंद नामक स्थान पर पहुंचा तब सूरजमल ने 6000 दु्रतगामी सेना लेकर मुगल सेना को घेर लिया। इस पर मीर बख्शी ने दिल्ली से कुमुक मंगवाई। जब यह कुमुक आई तो जाट उसका मार्ग रोककर उस पर बंदूकों से गोलियां बरसाने लगे। इस लड़ाई में जाटों ने बड़ी संख्या में मुगल सैनिक मार दिये। विवश होकर मुगल सेनापति अली रुस्तम खां तथा हाकिम खां भी मारे गये। सलाबत खां ने सूरजमल के पास संधि का प्रस्ताव भिजवाया। सूरजमल ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। इस संधि की शर्तें इस प्रकार थीं-

(1.) बादशाह की सरकार पीपल के वृक्षों को न कटवाने का वचन देती है।

(2.) बादशाह की सरकार पीपल वृक्ष की पूजा में कोई बाधा नहीं डालेगी।

(3.) बादशाह की सरकार बृज के हिन्दू मंदिरों का अपमान या नुकसान नहीं करेगी।

(4.) राजकुमार सूरजमल अजमेर प्रांत की मालगुजारी के रूप में राजपूतों से पन्द्रह लाख रुपये लेकर शाही खजाने में दे देगा

(5.) मीर बख्शी नारनौल से आगे नहीं बढ़ेगा।

इस सफलता से सूरजमल तथा उसके आदमियों में नया आत्म-विश्वास उत्पन्न हुआ। जाटों की सैनिक सामर्थ्य प्रमाणित हो गई। इस संधि की शर्तों में स्पष्ट रूप से ब्रज मण्डल में भरतपुर के शासकों की उत्कृष्ट स्थिति को मान्यता दे दी गई।

रूहेलों के विरुद्ध दूसरा अभियान

ई.1751 में सफदरजंग ने फिर से रूहेलों के विरुद्ध अभियान किया। इस बार उसने मराठों से प्रतिदिन 25 हजार के व्यय पर तथा जाटों से प्रतिदिन 15 हजार रुपये के व्यय पर सेनाएं प्राप्त कीं। जाटों और मराठों की सम्मिलित सेनाओं ने रूहलों के प्रदेश को तहस-नहस कर दिया।

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