Saturday, July 27, 2024
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अमर वीर जोरावरसिंह बारहठ

जोरावरसिंह बारहठ का जन्म 12 सितम्बर 1893 को उदयपुर में हुआ। वे कृष्णसिंह के तीन पुत्रों में से एक थे तथा केसरीसिंह के सबसे छोटे भाई थे। जोरावरसिंह का बाल्यकाल उदयपुर में बीता एवं प्रारम्भिक शिक्षा भी वहीं हुई। कृष्णसिंह को जब जोधपुर नरेश जसवंतससिंह ने अपनी सेवा में बुला लिया तो जोरावरसिंह भी अपने पिता के साथ उदयपुर से जोधपुर आ गये। इनकी आगे की शिक्षा जोधपुर में हुई। जब ठाकुर कृष्णसिंह का निधन हो गया तब जोधपुर नरेश सरदारसिंह ने जोरावरसिंह को महारानी के महलों में प्रबंधक नियुक्त किा। कुछ समय बाद जोरावरसिंह का विवाह कोटा रियासत के अतरालिया ठिकाने के ठाकुर तखतसिंह की पुत्री अनोपकंवर के साथ हुआ।

कुछ समय बाद जोरावरसिंह भी अपने बड़े भाई केसरीसिंह की भांति रासबिहारी बोस के सम्पर्क में आये तथा क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भाग लेने लगे। उनका घर पर रहना प्रायः छूट गया और वे क्रांति के सिलसिले में देश के विभिन्न भागों की यात्रा करने लगे। जोरावरसिंह के कोई संतान भी नहीं हुई।

नीमेज या आरा हत्याकाण्ड (बिहार) ई.1912 में पांच व्यक्ति नामजद अभियुक्त बनाये गये। इनमें से तीन अभियुक्त- मोतीचंद शाहा, शोलापुर; जयचंद, जम्मू; तथा मणिक चंद, बनारस; अर्जुनलाल सेठी के जयपुर स्थित वर्धमान विद्यालय के विद्यार्थी थे। इनके अतिरिक्त जोरावरसिंह बारहठ, राजस्थान; और विष्णुदत्त द्विवेदी, बनारस; भी इस केस में अभियुक्त थे। इनमें से मोतीचंद को फांसी दी गई तथा विष्णु दत्त को काले पानी की सजा हुई। जोरावरसिंह फरार हो गये। अपनी फरारी के दौरान वे क्रांति का काम करते रहे।

ब्रिटिश सरकार द्वारा 12 दिसम्बर 1911 को दिल्ली में विराट दरबार का आयोजन किया गया। इसमें भाग लेने के लिये इंगलैण्ड का बादशाह जॉर्ज पंचम भी आया। इस दरबार में देश के समस्त राजाओं, बड़ी जागीरदारों, बड़े उद्योगपतियों, व्यवसायियों, धर्माचार्यों, पूंजीपतियों एवं विद्वानों को आमंत्रित किया गया। इस दरबार में भी जॉर्ज पंचम ने भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित किये जाने की घोषणा की।

23 दिसम्बर 1911 को वायसराय के लिये नई राजधानी में प्रवेश का दिवस नियत किया गया। जब वायसराय हार्डिंग की विशेष रेलगाड़ी कलकत्ता से चलकर दिल्ली पहुंची तो वायसराय के स्वागत के लिये देश के बड़े-बड़े राजा-महाराजा एवं उद्योगपति रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। इसके बाद हार्डिंग एक हाथी पर बैठकर जुलूस के रूप में अपने निवास की ओर चले। इस जुलूस में विशिष्ट जनों के साथ-साथ वायसराय के अंगरक्षकों की सेना भी चल रही थी।

रासबिहारी बोस ने वायसराय पर बम फैंकने की योजना बनाई। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये मास्टर अमचंद, अवधबिहारी, बालमुकुन्द, जोरावरसिंह बारहठ, प्रतापसिंह बारहठ, बसन्त विश्वास, छोटे लाल, हनुमंत सहाय आदि क्रांतिकारियों का दल बनाया गया। चंदननगर से बम मंगवाये गये। रासबिहारी बोस स्वयं बम फैंकना चाहते थे किंतु उनका शरीर भारी था तथा कद भी ज्यादा लम्बा नहीं था। इसलिये यह कार्य जोरावरसिंह बारहठ को सौंपा गया। जोरावरसिंह ने बम फैंकने के लिये कई दिनों तक अभयास किया। उनका निशाना अचूक होता था।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वायसराय और उनकी पत्नी एक सुसज्जित हाथी पर रखे सोने-चांदी के होदे में बैठे। बलरामपुर का जमींदार महावीरसिंह सोने का छत्र लेकर वायसराय के पीछे बैठा। वायसराय की सुरक्षा के लिये उनके हाथी के चारों ओर कड़ी व्यवस्था की गई थी।

जोरावरसिंह एवं प्रतापसिंह बुरका ओढ़कर तथा बम को कपड़ों में छिपाकर नाव में सवार होकर यमुना पार से दिल्ली में प्रविष्ट हुए। नाव में सवार एक यात्री ने कहा कि कपड़ों की गठरी नीचे रख दो। इस पर चाचा-भतीजा ने जवाब दिया कि हम मायरा (भात) लेकर जा रहे हैं, इस कारण इस पवित्र गठरी को नीचे रखना ठीक नहीं है। इस प्रकार चाचा-भतीजा बम को सुरक्षित लेकर दिल्ली पहुंचे और चांदनी चौक में पंजाब नेशलन बैंक की छत पर जा बैठे। वहाँ पहले से ही औरतों का एक झुण्ड वायसराय की सवारी देखने के लिये मौजूद था। जब वायसराय की सवारी पंजाब नेशनल बैंक के सामने से निकली तो अचूके निशानेबाज जोरावरसिंह ने अपने बुर्के से बम निकालकर वायसराय की सवारी पर फैंक दिया। जबरदस्त विस्फोट हुआ और चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। संयोगवश जोरावरसिंह का हाथ पास बैठी हुई एक महिला से टकरा गया इससे बम का निशाना चूक गया। वायसराय तो बच गया किंतु पीछे बैठा हुआ महावीरसिंह मारा गया।

चारों तरफ भगदड़ मच गई। घबराहट के कारण लॉर्ड हार्डिंग बेहोश हो गये। पुलिस ने शीघ्र ही इलाके को चारों ओर से घेर लिया किंतु वीर क्रांतिकारी उस स्थल से भाग निकलने में सफल हो गये। ब्रिटिश सरकार तथा देश के विभिन्न राजाओं एवं महाराजाओं ने बम फैंकने वालों को पकड़ने के लिये लाखों रुपयों के इनामों की घोषणाएं कीं। बम काण्ड की जांच करने के लिये स्कॉटलैण्ड यार्ड से विशेषज्ञ बुलाये गये। रासबिहारी बोस भूमिगत हो गये। बम फैंकने के पांच दिन बाद जोरावरसिंह दिल्ली से बाहर निकले। वे लगातार पचास मील पैदल चलते हुए भूमिगत हो गये कुछ समय बाद वे अहमदाबाद पहुंच गये। गुप्तचर उनके पीछे लगे हुए थे। जोरावरसिंह बांसवाड़ा और डूंगरपुर होते हुए मालवा के पहाड़ों एवं जंगलों में चल गये। वे खेतों की ककड़ियां खाकर और नदी का पानी पीकर जीवित रहे। कई बार तो पेट भरने के लिये पेड़ों के पत्ते भी खाये। जब पैरों में तकलीफ हो गई और इतनी बढ़ गई कि चलना भी दूभर हो गया तो उन्होंने अमरदास नामक वैरागी का रूप धर लिया और सीतामऊ राज्य के आसपास के गांवों में अज्ञातवास किया। इस तरह वे 25 वर्ष तक जीवित रहे तथा जीवन भर नहीं पकड़े जा सके।

कई कानूनी कारणों से इस बम-काण्ड की पुलिस एफ आई आर दर्ज नहीं की गई। बाद में दिल्ली-लाहौर कांसिप्रेसी केस (1914) में अवधबिहारी, मास्टर अमीचंद, भाई बालमुकुंद और बसन्त विश्वास को फाँसी की सजा दी गई। रास बिहारी बोस नाकटकीय ढंग से देश से छोड़कर जापान भाग जाने में सफल रहे।

1937 ई. में वे छद्मवेश में अपने परिजनों के साथ अपने भाई किशोरसिंह के देहावसान पर पटियाला गये। लौटते समय सभी लोग दिल्ली पहुंचे। यहां वे अपने परिवार के साथ उचित दूरी बनाते हुए चांदनी चौक गये जहाँ उन्होंने अपनी 14 वर्षीय पौत्री राजलक्ष्मी साधना को संकेतों से ही वे स्थान बताये जहां से उन्होंने बम फैंका तथा जहां आकर बम गिरा। इसी प्रकार दूसरे दिन ये लोग दिल्ली दर्शन के दौरान एसेम्बली देखने गये। यहां वे अंग्रेज गाइड की नजर बचाकर स्पीकर की सुनहरी कुर्सी पर बैठ गये ओर बोले- इस तख्त पर एक दिन हिन्दुस्तानी बैठेगा। इसके पश्चात् उन्होंने परिवार के बच्चों को वह स्थान भी दिखाया जहाँ भगतसिंह ने पर्चे फैंके थे।

अपने अज्ञात वास के दौरान जोरावरसिंह ने एक दिन संचई निवासी जगमालसिंह को बताया कि दिल्ली में वायसराय पर किन्हीं व्यक्त्यिों ने बम फैंका, उस सयम दो व्यक्ति अपनी चारण जाति के थे। ऐसा कभी तुमने सुना ? उनके हाँ करने पर जोरावसिंह ने उन्हें बताया कि वह सारी करतूत इसी शरीर की है।

जोरावरसिंह के विरुद्ध आरा (बिहार) केस में गिरफ्तारी वारण्ट चल रहे थे। ई.1937 में जब ब्रिटिश सरकार के प्रांतों में चुनाव हुए और कांग्रेस की सरकारें बनीं तब पुरुषोत्तम दास टण्डन के प्रयासों से जोरावरसिंह का गिरफ्तारी वारण्ट रद्द कर दिया गया। जिस दिन जोरावरसिं की गिरफ्तारी के वारण्ट रद्द होने के समाचार, समाचार पत्रों में छपे उसी दिन 17 अक्टूबर 1939 को जोरावरसिंह बारहठ की मृत्यु हो गई। वे निमोनिया से पीड़ित थे तथा फरार चल रहे थे। उनके निधन के कुछ समय बाद उनकी पत्नी अनोपकंवर का भी निधन हो गया।

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