Saturday, July 27, 2024
spot_img

कुंवर प्रतापसिंह बारहठ

प्रतापिसिंह बारहठ का जन्म 24 मई 1893 को उदयपुर में हुआ। उनके पिता ठाकुर केसरीसिंह शाहपुरा राज्य के देवपुरा ठिकाणे के ठाकुर कृष्णसिंह के पुत्र थे तथा माता माणिक्य कुंवरी कोटा राज्य के कोटड़ी ठिकाणे के कविराजा देवीदान महियारिया की बहिन थीं। प्रतासिंह को राष्ट्रप्रेम की भावना अपने पिता केसरीसिंह से प्राप्त हुई। प्रताप का बाल्यकाल उदयपुर, कोटा, अजमेर तथा दिल्ली में बीता।  उनकी प्रारंभिक शिक्षा कोटा में हुई। अजमेर के दयानंद एंग्लोवैदिक हाईस्कूल से उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त की किंतु वे परीक्षा में नहीं बैठे। उन्हें देश को स्वतंत्र करवाने के लिये कार्य करने की इच्छा थी। इसलिये केसरीसिंह ने उन्हें क्रांतिकारी अर्जुनलाल सेठी के पास भेज दिया। वहाँ से उन्हें सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी मास्टर अमीचंद के पास भेजा गया ताकि उन्हें क्रांति कार्यों की व्यवहारिक शिक्षा दी जा सके।

चूंकि ठाकुर केसरीसिंह जेल में बंद थे और उनकी हवेली शाहपुरा के राजाधिराज द्वारा जब्त कर ली गई इसलिये प्रतापसिंह का जीवन अभावों एवं गरीबी में बीता। जब कभी प्रतापसिंह के लिये शादी का प्रस्ताव आता तो वे हँसकर कहते- मेरी शादी तो फाँसी के तख्ते पर होगी।

कुछ समय बाद प्रतापसिंह ने क्रांति कार्यक्रमों में भाग लेने के लिये जाने का निश्चय किया। उनके पास यात्रा-व्यय भी नहीं था। उन्होंने अपनी माता से कहा कि मेरी धोती फट गई है इसलिये मुझे नई धोती खरीदने के लिये दो रुपये दो। प्रतापसिंह को भय था कि यदि माता को पता लग गया कि रुपये क्रांति कार्यों में जाने के लिये चाहिये तो माता कहीं उन्हें रोक न दे। माता ने उन्हें एक रुपया दिया। माता से एक रुपया लेकर प्रतापसिंह सीधा अपने पिता के मित्र मुंशी मोहनलाल के घर गया और उनसे हँसकर बोला- मैं अभी शादी करने जा रहा हूँ। यह सुनकर मुंशीजी हतप्रभ रह गये। वे बोले- तुम्हारे पिता जेल में हैं, घर-बार जब्त कर लिया गया है और तुझे शादी करने की सूझ रही है ?

प्रतापसिंह उनसे विदा लेकर सीधा मास्टर अमीचंद के पास पहुंचा। जब माता माणिक कंवर को पुत्र की कारस्तानी ज्ञात हुई तो उन्होंने कहा- प्रताप तुमने अपनी माता को पहचानने में भूल की। धोती के लिये एक रुपया लेकर तुम गये। तभी तुमने अपने मन की बात कह दी होती तो मैं तुम्हें तिलक लगाकर विदा करती और पुष्प मालाओं से लाद देती।

मास्टर अमीचंद के साथ काम करने के दौरान ही रासबिहारी बोस ने प्रतापसिंह को अपने पास रख लिया। कुछ समय पश्चात् उन्हें राजस्थान में क्रांतिकारी दल के गठन का दायित्व सौंपा गया। प्रतापसिंह  ने राजस्थान की सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों को भविष्य में सशस्त्र क्रांति के लिये तैयार करने का काम आरंभ किया। इस समय प्रतापसिंह की आयु बीस वर्ष थी।

दिसम्बर 1912 में रासबिहारी बोस ने लॉर्ड हार्डिंग पर बम फैंकने की योजना बनाई। प्रतापसिंह तथा जोरावरसिंह को लॉर्ड हार्डिंग पर बम फैंकने के लिये चुना। बम फैंकने के बाद वे दोनों अलग हो गये और भूमिगत हो गये। जोरावरसिंह तो हाथ नहीं आये किंतु प्रतापसिंह पकड़े गये। पुलिस ने काफी माथापच्ची की किंतु प्रतापसिंह के विरुद्ध कोई अभियोग नहीं बना सकी। इस कारण उन्हें मुक्त कर दिया गया। रासबिहारी बोस भूमिगत हो गये थे। सरकार ने उन्हें पकड़वाने के लिये भारी इनाम की घोषणा की। पुलिस से छूटकर प्रतापसिंह रासबिहारी से मिलने नदिया (बंगाल) गये। वहाँ से भविष्य के लिये आवश्यक दिशा निर्देश प्राप्त करके वे बनारस पहुंचे तथा शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश एवं पंजाब के क्रांतिकारियों से सम्पर्क साधने लगे। इस समय प्रतापसिंह को पिंगले और करतारसिंह सराबा जैसे प्रमुख क्रांतिकारियों से सम्पर्क हुआ। अब वे उत्तरी भारत तथा राजपूताना में सशस्त्र क्रांति के लिये गुप्त रूप से संगठन खड़ा करने का काम करने लगे।

इसी सिलसिले में ई.1914 में वे जोधपुर आये। मार्ग में ट्रेन में अपने सहपाठी द्वारा पहचान लिया गया। यह सहपाठी इन दिनों आसारनाडा स्टेशन पर स्टेशन मास्टर था। उसने प्रतापसिंह के साथ छल करने का निश्चय किया तथा अपना क्वार्टर खोलकर उसमें प्रतापसिंह को सुला दिया तथा बाहर से ताला लगा दिया। उसने जोधपुर से सशस्त्र पुलिस को बुलवा लिया। पुलिस ने क्वार्टर को चारों ओर से घेरकर संगीनें तान दीं। इस प्रकार इस जबर्दस्त क्रांतिकारी को पकड़ लिया गया। प्रतापसिंह ने अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिये जेब से पिस्तौल निकालकर फायर करने का प्रयास किया किंतु पुलिस बल बड़ी संख्या में था इसलिये प्रतापसिंह बंदी बना लिये गये। प्रतापसिंह पर बनारस षड़यंत्र केस में शामिल होने का केस बनाया गया तथा उन्हें बरेली जेल में’बंद कर दिया गया। उस समय केसरीसिंह जेल में बंद थे तथा जोरावरसिंह फरार थे। किसी को कुछ पता नहीं लग सका कि आखिर हुआ क्या था ? उन्हें पांच वर्ष के कठोर कारावास की सजा हुई।

बरेली जेल में प्रतापसिंह पर अमानवीय अत्याचार किये गये। उन्हें काल कोठरी (सॉलिटरी सैल) में रखा गया। अपने प्रकार के प्रलोभन दिये गये ताकि वे अपने साथियों तथा उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी दे दें किंतु प्रतापसिंह टस से मस नहीं हुए। उन्होंने क्रांतिकारियों के गुप्त रहस्य कभी प्रकट नहीं किये। भारत सरकार के गुप्तचर विभाग के निदेशक सर चार्ल्स क्लीवलैण्ड बरेली सेंट्रल जेल में गये और प्रतापसिंह से मिले। उन्हें ज्ञात था कि प्रतापसिंह रासबिहारी बोस के अत्यंत निकट है तथा उनके बारे में’काफी कुछ जानता है। उनका विचार था कि कम आयु का होने के कारण प्रतापसिंह क्रांतिकारियों के रहस्य उगल देगा। प्रतापसिंह के पिता केसरीसिंह को जब इन बातों की जानकारी हुई तो उन्हें भी यह आशंका हुई कि प्रतापसिंह टूटकर सब बातें बता देगा किंतु तभी केसरीसिंह को प्रताप ने संदेश भिजवाकर आश्वस्त किया- दाता, आप निश्चिंत रहें, प्रताप आपका ही बेटा है। भेद प्रकट नहीं करेगा।

प्रतापसिंह को बताया गया कि उनकी माता उनके लिये करुण क्रंदन कर रही है। उन्हें लालच दिया गया कि यदि वे भेद बता देंगे तो उनके पिता की सारी जायदाद लौटा दी जायेगी। उन्हें यह भी लालच दिया गया कि उनके पिता की बीस साल की जेल माफ कर दी जायेगी। जोरावरसिंह का गिरफ्तारी वारण्ट माफ कर दिया जायेगा। प्रतापसिंह ने सोचने के लिये पुलिस अधिकारियों से एक दिन का समय मांगा। एक दिन बाद उन्होंने पुलिस को यह जवाब दिया- ‘देखिये, बहुत सोच देखा, अंत में तय किया है कि कोई बात नहीं खोलूंगा। अभी तक तो केवल मरी एक माता ही कष्ट पा रही है किंतु यदि मैं सब गुप्त बातें प्रकट कर दूं तो और भी कितने ही लोगों की माताएं ठीक मेरी माता के समान कष्ट पायेंगी। एक माँ के बदले में और कितनी ही माताओं को तब हाहाकार करना पड़ेगा।’

महाराणा प्रताप की तरह अपने प्रण पर अटल रहा। प्रतापसिंह की दृढ़ता की प्रशंसा करते हुए क्लीवलैण्ड ने लिखा है- ‘मैंने आज तक प्रतापसिंह जैसा वीर और विलक्षण बुद्धि का युवक नहीं देखा। उसे सताने में हमने कोई कसर नहीं रखी, परन्तु वाह रे वीर-धीर वह टस से मस नहीं हुआ। गजब का कष्ट सहने वाला था। हमारी सब युक्तियाँ व्यर्थ हो गईं। हम सब हार गये, उसी की बात अटल रही। वह विजयी हुआ।’

जेल के अत्याचारों से प्रतापसिंह मौत के कगार पर पहुँच गये। 24 मई 1918 को जेल में ही उनका निधन हो गया। बरेली के स्थानीय लोगों को उनकी मृत्यु का संदेह हो गया। इसलिये उन्होंने जेल वालों से प्रतापसिंह का शव मांगा किंतु जेल वालों ने उनकी मृत्यु की बात से इन्कार कर दिया तथा जेल में ही उनके अंतिम संस्कार करने की योजना बनाई। उन्हें भय था कि धुंआ जलता देखकर लोगों को संदेह हो जायेगा। इसलिये उन्हें हिन्दू होते हुए भी जलाने की बजाय धरती में गाढ़ दिया गया। प्रतापसिंह के परिजनों को भी उनकी मृत्यु की सूचना नहीं दी गई। जब 1919 में केसरीसिंह जेल से छूटे तब उन्हें प्रतापसिंह की मृत्यु के बारे में’जानकारी हुई। प्रतापसिंह की माता को भी उनकी मृत्यु की जानकारी नहीं थी इसलिये वे हर रात को अपने घर के दरवाजे खुले रखती थीं ताकि किसी रात उनका बेटा आये तो घर बंद देखकर लौट न जाये।

रामनारायण चौधरी ने प्रतापसिंह की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘गीता में कर्मयोगी की जो परिभाषा दी गई है, उसका सही दर्शन प्रताप में होता था और वे एक सच्चे कर्मयोगी थे। उनमें कामिनी और कंचन के प्रति पूर्ण विरक्ति थी। एक बार वे लगातार तीन दिन और तीन रात तक बराबर अपलक काम करते रहे और फिर सोये तो ऐसे सोये कि तीन दिन और तीन रात तक सोते ही रहे। यदि मेरे जीवन पर सबसे अधिक किसी का प्रभाव पड़ा है तो वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का और दूसरा कुंवर प्रतापसिंह का। यदि वे जीवित रहते तो महात्माजी के दांये हाथ होते।’

जेल के पन्नों में प्रतापसिंह के बारे में जो जानकारी दी गई है उसके अनुसार प्रतापसिंह की आयु 18 वर्ष, ऊँचाई 5 फुट 1 इंच तथा वजन 102 सेर बताया गया है। इस विवरण से अनुमान होता है कि वे ठिगने, मोटे और बहुत कम आयु के थे। यह सारी जानकारी गलत है तथा उनकी पहचान छिपाने के लिये लिखी गई है। मृत्यु के समय वे 28 वर्ष के थे, न कि 18 वर्ष के। इस रजिस्टर में लिखा है कि जेल में उनका आचरण बहुत अच्छा था और उनकी मृत्यु 24 मई 1918 को दुपहर के बाद हुई। गोपालसिंह खरवा ने लिखा है- ‘विधाता ने सौ रंघड़ (वीर क्षत्रिय) भांगकर एक प्रताप को बनाया था।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source