Thursday, July 25, 2024
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शेखावाटी क्षेत्र की बोली

शेखावाटी क्षेत्र की बोली वस्तुतः एक बोली न होकर कई बोलियों का समूह है। इस आलेख में शेखावाटी क्षेत्र की बोली के विविध रूपों की जानकारी दी गई है।

राजस्थानी भाषा का विकास

बंगाल से लेकर गुजरात तक तथा काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक विस्तृत भू-क्षेत्र में इतनी अधिक बोलियां बोली जाती हैं कि इस सम्पूर्ण क्षेत्र को भाषाओं का जीवित संग्रहालय कहा जा सकता है फिर भी यह एक आश्चर्य जनक तथ्य है कि भारत भूमि पर प्रयुक्त होने वाली समस्त भाषाओं एवं बोलियों में संस्कृत भाषा ही प्राण तत्व के रूप में उपस्थित है।

क्षेत्र विशेष के अनुसार इन भाषाओं एवं बोलियों पर प्राकृत, पाली, अपभ्रंश एवं द्रविड़ भाषाओं का भी प्रभाव है। राजस्थान और गुजरात क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों में अपभ्रंश का मिश्रण अधिक है।

‘नागर-अपभ्रंश’ राजस्थान की अपनी भाषा थी। इसी भाषा से 1000 ईस्वी के लगभग ‘प्राचीन-राजस्थानी’ की उत्पत्ति हुई। आधुनिक भारतीय भाषाओं में इसी ‘प्राचीन-राजस्थानी’ भाषा को सर्वप्रथम साहित्यिक रूप में प्रतिष्ठित होने का गौरव मिला।

डॉ. ग्रियर्सन और डॉ. पुरुषोत्तमलाल मैनारिया इस क्षेत्र की अपभ्रंश को ‘नागर-अपभ्रंश’, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ‘सौराष्ट्री-अपभ्रंश’, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, नरसिंहराव भो. दिवेटिया, मोतीलाल मेनारिया, डॉ. हीरालाल माहेश्वरी, नरोत्तमदास स्वामी, डा. रघुबीरसिंह और डॉ. सीताराम लालस इसे ‘गुर्जरी’ या ‘गुर्जर-अपभ्रंश’ कहते हैं। इसी ‘गुर्जर-अपभ्रंश’ से राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति हुई जिसका एक रूप ‘डिंगल’ के रूप में विख्यात हुआ।

मारवाड़ी भाषा का विकास

एल. पी. टैस्सीटोरी ने लिखा है- तथ्य यह है कि जिस भाषा को मैं ‘प्राचीन-पश्चिमी-राजस्थानी’ के नाम से पुकारता हूँ, उसमें वे समस्त तत्व उपस्थित हैं जो ‘गुजराती’ के साथ-साथ ‘मारवाड़ी‘ के उद्भव के सूचक हैं और इस तरह वह भाषा (पश्चिमी राजस्थानी) स्पष्टतः इन दोनों (गुजराती तथा मारवाड़ी) की सम्मिलित माँ है।

शेखवाटी बोली का विकास

लगभग 6ठी-7वीं शताब्दी से लेकर 13वीं-14वीं शताब्दी तक अलवर से लेकर शेखावाटी तक के क्षेत्र में गुर्जरों की ‘बड़गूजर’ शाखा राज्य करती थी। नरवर से आये कच्छवाहों ने मूलतः इन्हीं बड़गूजरों से ढूंढार प्रदेश छीना था। (बड़गूजरों के क्षेत्र में मत्स्यों द्वारा शासित छोटे-छोटे क्षेत्र भी स्थित थे।)

शेखावाटी क्षेत्र भी बड़गूजरों के क्षेत्र में सम्मिलित था। अतः शेखावाटी बोली का मूल स्रोत बड़गूजरों द्वारा शासित क्षेत्र माना जा सकता है जहाँ ‘गुर्जरी-अपभ्रंश’ व्यवहृत होती थी।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ‘प्राचीन-पश्चिमी-राजस्थानी’ में ही शेखावाटी का प्राचीन रूप देखा जा सकता है। यही पूर्ववर्ती रूप ब्रजभाषा से संस्कारित होकर विकसित हुआ। मुगलों के आने पर इस क्षेत्र की बोली ने अरबी और फारसी शब्द ग्रहण किये।

अंग्रेजों के आगमन के बाद इस बोली में आंग्ल भाषा की शब्दावली ने भी प्रवेश कर लिया। इस प्रकार वर्तमान ‘शेखावाटी’ बोली का प्राकट्य हुआ। जो आर्यभाषा परिवार की एक महत्वपूर्ण बोली कही जा सकती है।

वर्तमान शेखावाटी बोली

शेखावाटी क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली को ‘शेखावाटी बोली’ कहते हैं। भाषा वैज्ञानिक ग्रंथों में इस बोली का सर्वप्रथम उल्लेख खेरेंड जी. मैकेलिस्टर ने ‘शेखावाटी’ नाम से ई.1898 में किया। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी अपने भाषा सर्वेक्षण ग्रंथ में इसी नाम से इस बोली का उल्लेख किया है। मैकेलिस्टर ने जयपुर राज्य में प्रयुक्त कुल 15 बोलियों में शेखावाटी को प्रथम स्थान दिया।

शेखावाटी और उसकी सीमावर्ती बोलियां

शेखावाटी बोली पश्चिमोत्तर में मारवाड़ी, बीकानेरी, उत्तर में कांगड़ी, पूर्वोत्तर में बांगरू, पूर्व में अहीरवाटी, मेवाती, दक्षिण-पूर्व में तोरावाटी तथा दक्षिण में ढूंढारी (जयपुरी) आदि बोलयों से घिरी हुई है।

इन सभी बोलियों में पारस्परिक विचार-विनिमय की मात्रा अधिक है। इसलिये इनमें परस्पर साम्य दृष्टिगत होता है। उच्चारण, व्याकरणिक एवं अभिधेयार्थ शब्दावली की दृष्टि से इनमें वैषम्य के लिये भी न्यूनाधिक स्थान है। फिर भी इन क्षेत्रों की राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकता ने इनमें बहुत अधिक भेद उत्पन्न नहीं होने दिया।

क्या शेखवाटी एक पृथक बोली है ?

शेखावाटी बोली, चारों दिशाओं से ऐसी बोलियों से घिरी हुई है जिनमें परस्पर अनेक समानताएं हैं। इस कारण यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या शेखावाटी एक प्रृथक बोली है? शेखावाटी प्रदेश सांस्कृतिक एवं राजनैतिक दृष्टि से अन्य जातियों का भी संधि स्थल रहा है क्योंकि इस प्रदेश से सटे हुए तोरावाटी, अहीरवाटी, मेवाती, ढूंढार आदि प्रदेशों में तंवरों, अहीरों, मेवों एवं मत्स्यों के राज्य स्थापित थे।

शेखवाटी के पूर्वोत्तर में स्थित पंजाब और दिल्ली प्रदेश अत्यधिक राजनैतिक हलचलों से भरे हुए थे जिनका प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा।

इन राजनैतिक हलचलों के प्रभाव से शेखावाटी क्षेत्र अनेक जातियों के सांस्कृतिक सम्मिलन का केन्द्र बन गया। इस कारण शेखावाटी में अनेक भाषा तात्विक विशेषताएं आकर एकत्रित हो गईं जो आज भी दिखाई देती हैं। भाषा-शास्त्रियों के अनुसार जिस क्षेत्र में विभिन्न भाषा-तात्विक विशेषताएं उपस्थित हों, वह क्षेत्र एक स्वतंत्र भाषा इकाई का निर्माण करता है।

अतः इस क्षेत्र में जहाँ एक ओर कुछ विशेषताएं ‘पश्चिमी हिन्दी क्षेत्र’ की मिलती हैं, वहीं दूसरी ओर अधिकाधिक विशेषताएं ‘राजस्थानी’ की भी मिलती हैं जो ‘शेखावाटी बोली’ को ‘राजस्थानी’ की एक विभाषा या बोली सिद्ध करने में सहायक है।

इतना होते हुए भी शेखावाटी अपनी समस्त समीपवर्ती बोलियों से कुछ पृथक भाषा-तात्विक विशेषताएं रखती है जिनके कारण उसे एक स्वतंत्र भाषा इकाई माना जा सकता है। सुनीति कुमार चटर्जी ने लिखा है कि इन्हीं विशेषताओं के कारण भाषाविदों ने शेखावाटी को पृथक बोली स्वीकार किया है।

शेखावाटी बोली का क्षेत्र

डॉ. कैलाशचंद्र अग्रवाल के अनुसार उत्तर में पिलानी और सूरजगढ़ से लेकर दक्षिण में उदयपुर तहसील और सीकर तक तथा पश्चिम में फतेहपुर से लेकर पूर्व में खेतड़ी और सिंघाना तक बोली जाने वाली बोली शेखावाटी है। इस दृष्टि से वर्तमान समय में यह दो जिलों- झुंझुनूं एवं सीकर जिले की बोली ठहरती है।

शेखावाटी बोली की सामान्य प्रवृत्तियां

1. खड़ी बोली हिन्दी की आकारान्तता की तुलना में यह ओकारान्त भाषा है- जूतो-जूता, कुत्तो-कुत्त्ता, घोड़ो-घोड़ा, मेरो-मेरा, तेरो-तेरा, मीठो-मीठा, किसो-कैसा, खाणो-खाना, पीणो-पीना आदि।

2. खड़ी बोली हिन्दी के संयुक्त स्वर ‘ऐ’ और ‘औ’ शेखावाटी में इ, ई, ओ, हो जाते हैं- इसो-ऐसा, किसो-कैसा, पीसा-पैसा, दोड़-दौड़, फोरन-फौरन आदि।

3. स्वर मध्यवर्ती तथा शब्दांत महाप्राण ध्वनियों के महाप्राण का ह्रास शेखावाटी की उल्लेखनीय प्रवृत्ति है- आदो-आधा, धोको-धोखा, जांग-जांघ, दूद-दूध, सूदो-सीधा, आदि।

4. खड़ी बोली हिन्दी की तुलना में शेखावाटी की अपने कुछ विशेष ध्वनियां हैं जो ध्वनिग्राम के रूप में प्रतिष्ठित हैं: न्ह- न्हाण, न्होरा। म्ह- म्हे, म्हां। ल्ह- ल्हावणो, ल्हकणो।

5. कुछ शब्द शेखावाटी के अपने हैं- गंडक, सारू, भोभर, भभूलियो, चूसो, कनखो, हुचकी, बीड़, डुकाव, लरड़ी, खाजरू, उरणियो, गूण, चूंथी, चिगस्थ, डाफी, डांफा, घुचरियो आदि।

6. शेखावाटी बोली में शब्द युग्म के प्रयोग कई प्रकार से होते हैं- पीर-सासरी, भोलो-स्याणो, माला-मणियो, रोटी-टुकड़ो, नदी-नालो, सांठ-गांठ, काली-पीली, डर-भौ, धोलो-धप्प। कालो-स्याह, तोलणो-जोखणो, मोल-तोल, गाबा-लत्ता आदि।

7. भाषा माधुर्य के लिये कई शब्दों के साथ ‘ड़ी’, ‘ली’ तथा ‘ण’ का प्रयोग बड़ी स्वाभाविकता के साथ होता है- चिड़कली, धीवड़ली, रातड़ली, प्रीतड़ली, बायली, सहेलड़ी, मावड़ी, पदमण, समधण आदि।

8. स्त्री वाचक संज्ञाओं के साथ, सम्मान सूचक शब्द ‘जी’ के विपरीत भाव देने के लिये ‘ती’ तथा ‘ली’ का प्रयोग शेखावाटी की अनूठी विशेषता है- खातणती, मालणती, धोबणती, कुंजड़ती, दामली, पेमली, नेमली आदि।

9. पुरुषवाचक संज्ञाओं के साथ, सम्मान सूचक शब्द ‘जी’ के विपरीत भाव देने के लिये ‘इयो’ ‘लो’ तथा ‘ड़ो’ का प्रयोग होता है- रामियो, किसनियो, तारियो, पूरणियो, भगोतियो, दामलो, गेमलो, नेमलो, गुसाइड़ो, सवाईड़ो, खातीड़ो, रामूंड़ो आदि।

10. प्रेम, सहानुभूति एवं आदर प्रकट करने के लिये भी ‘ड़ो’ का प्रयोग होता है- भाइड़ो, बापड़ो, साथीड़ो आदि।

11. शेखावाटी बोली की उच्चारण सम्बन्धी विशेषता अत्यंत महत्वपूर्ण है। शब्द की उदात्त तथा अनुदात्त ध्वनियों में अन्तर करते ही अर्थ भेद हो जाता है- कान (कर्ण), काऽन (कृष्ण), कोड (चाव), कोऽड (कुष्ठरोग), नाथ (स्वामी), नाऽथ (बैलों की नाक में डालने वाली रस्सी), नार (स्त्री), नाऽर (सिंह)।

12. ल और ळ का उच्चारण भेद भी शब्द का अर्थ बदल देता है- गाल (कपोल), गाळ (गाली), खेल (क्रीड़ा), खेळ (पानी की हौदी), पोली (थोथी), पोळी (प्रवेशद्वार) आदि।

13. कतिपय बहुप्रचलित शब्दों के प्रयोग में निकटवर्ती भाषाओं से समानता एवं विभिन्नता पाई जाती है, यथा- ‘हवेली’ शब्द के लिये शेखवाटी, तोरावाटी तथा ढूंढारी बोलियों में ‘होली’ शब्द का प्रयोग होता है जबकि अन्य निकटवर्ती बोलियों में ‘हेली’ शब्द का प्रयोग होता है। इसी प्रकार ‘वाला’ के लिये शेखावाटी में ‘हालो’ का तथा अन्य निकटवर्ती बोलियों में ‘आलो’ उच्चारण का प्रयोग होता है।

14. शेखावाटी, तोरावाटी एवं मारवाड़ी बोलियों में ‘कहाँ’ के लिये ‘कठै’ शब्द का प्रयोग होता है जबकि शेखवाटी की निकटवर्ती ढूंढारी बोली में ‘कोडै’ का प्रयोग होता है। इसी प्रकार यहाँ वहाँ के लिये शेखावाटी में मारवाड़ी की भांति अठै, उठै, बठै, का प्रयोग होता है जबकि जयपुरी (ढूंढारी) में अण्डै, उण्डै, बण्डै का प्रयोग होता है। इस प्रकार की ध्वनियों के कारण ही शेखावाटी बोली, ढूंढारी बोली से पृथक सिद्ध होती है।

15. शेखावाटी बोली में ‘इस-उस’ के लिये ‘इण-उण’, सहायक क्रिया ‘है’ के लिये ‘सै’ या ‘छे’, भूतकालिक सहायक क्रिया ‘था’ के लिये ‘थो’ ‘हो’ ‘छो’, ‘जाना’ के लिये ‘जाणो-जावे, जावांगा, जास्यां, जावांला, आदि का प्रयोग होता है। इन शब्दों से शेखवाटी बोली का अपनी निकटवर्ती मारवाड़ी आदि बोलियों से पार्थक्य पुष्ट होता है।

तोरावाटी

तोरावाटी क्षेत्र में बोली जाने वाली तोरावाटी बोली की कुछ विशेषताएं हैं जिनके कारण वह शेखावाटी बोली का हिस्सा होते हुए भी पृथक स्वरूप रखती है। अतः इस दृष्टि से इसे शेखवाटी की उपबोली कहा जा सकता है। तंवर राजपूतों द्वारा शासित प्रदेश तोरावाटी अपनी स्थिति के समय दो तहसीलों में विभाजित था-

(1.) तोरावाटी और (2.) बैराठ। इस क्षेत्र में श्रीमाधोपुर, नीम का थाना, सवाई रामगढ़, खण्डेला, गणेश्वर, कांवठ, थोई, अजीतगढ़, अमरसर, प्रागपुरा पावटा, आंतेला, राजनोता आदि मुख्य नगर थे।

श्रीमाधोपुर और नीम का थाना क्षेत्र में शेखवाटी बोली जाती है किंतु इस पर तोरावाटी और ढूंढारी (जयपुरी) बोलियों का प्रभाव भी है। जब श्रीमाधोपुर और नीम का थाना आदि तोरावाटी के क्षेत्र सीकर जिले में सम्मिलित किये गये तब इन क्षेत्रो में शेखावाटी का प्रसार अधिक हो गया।

चूरू-रतनगढ़ की बोली

राजनीतिक दृष्टि से चूरू-रतनगढ़ क्षेत्र का सम्बन्ध शेखावाटी से रहा है। चूरू जिले की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति शेखावाटी से साम्य रखती है। राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्पर्क किसी क्षेत्र की बोली या भाषा को निकटवर्ती क्षेत्र की बोली या भाषा से प्रभावित होते हैं।

इसी कारण चूरू-रतनगढ़ क्षेत्र की बोली पर शेखावाटी का प्रभाव लक्षित होता है। शेखावाटी बोली के सम्बनध सूचक परसर्ग ‘का’ ‘को’ ‘की’ का प्रयोग रतनगढ़ तक देखा जा सकता है। इससे आगे बीकानेर में ‘रा’ ‘रो’ ‘री’ का प्रयोग होता है। इसलिये रतनगढ़ तक शेखावाटी बोली का प्रभाव निर्धारित किया जा सकता है।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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