Tuesday, December 3, 2024
spot_img

रेगिस्तानी सूखी सब्जियाँ

रेगिस्तानी सूखी सब्जियाँ पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान रखती हैं। ये सब्जियाँ पहाड़ों, नम क्षेत्रों, वर्ष भर बहने वाली नदियों के क्षेत्रों, समुद्र के किनारों पर नहीं पाई जातीं।

आज से लगभग 200 साल पहले अंग्रेज सैन्य अधिकारी कर्नल टॉड ने पश्चिमी राजस्थान की यात्रा की। उसने अपने यात्रा संस्मरण में मरुस्थल के खानपान का बहुत रोचक वर्णन किया है। उसने लिखा है कि इस क्षेत्र में खेती की अत्यधिक न्यूनता होने के कारण जंगली वनस्पतियों का समाज एवं संस्कृति पर विशेष प्रभाव पड़ा है।

खेजड़ी की फलियों अर्थात् ‘सांगरी’ को पीसकर आटा बना लिया जाता है। इसे पानी तथा छाछ में घोलकर पिया जाता है। ‘जाल’नामक झाड़ियों से चरवाहों की झौंपड़ियां बनती हैं और जेठ-बैसाख में उनमें फल लगते हैं जिन्हें ‘पीलू’कहा जाता है। यह भी खाने के काम आता है।

बबूल से गोंद निकलता है जिससे औषधि का निर्माण होता है। जवासे के गोंद से भी दवाई बनती है। बेर की झाड़ियां सर्वाधिक पाई जाती हैं और बहु-उपयोगी होती हैं। बेर एक स्वादिष्ट फल होता है।

करील अथवा कैर के फलों से सब्जी और अचार बनते हैे। इसकी झाड़ियां 10 से 15 फुट ऊँची होती हैं। इसके फल को नमक के पानी में गलाकर इसे घी और नमक के साथ रोटी से खाते हैं। कई परिवारों के पास इसका बीस मन तक का संचय रहता है।

राबड़ी जो अफ्रीकी मरुस्थल में बनाये जाने वाले कुसकोस से बहुत साम्य रखता है, अधिकतर ऊँटनी के दूध से बनता है जिससे घी ये लोग पहले ही निकाल लेते हैं।

 सिंध से ऊँटों और घोड़ों पर लद कर सूखी मछलियां आती हैं और सम्पूर्ण मरुस्थल में तथा पूर्व में बाड़मेर तक उनकी खूब बिक्री होती है। ये मछलियां दो डूकरे (ताम्बे के सिक्के) की एक सेर के हिसाब से बिकती हैं।

कुछ सेर बाजरा, ज्वार, और खेजड़े का आटा छाछ में घोल लेते हैं और फिर उसे आग पर चढ़ाकर गरम कर लेते हैं, उबालते नहीं हैं।

कर्नल टॉड के इस वर्णन को दो सौ साल से अधिक समय बीत चुका है। इस बीच थार रेगिस्तान में इंदिरा गांधी नहर के आने से परिस्थितियां बदली हैं फिर भी यहां के निवासियों में सब्जियों को सुखाकर संचय करने तथा उन्हें साल के उस भाग में इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति है जब वे खेतों में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध नहीं होतीं।

इनमें से कुछ प्रमुख सब्जियों के बारे में इस वीडियो में बताया गया है।

काचरी

कार्तिक-मिगसर माह में काचरियां तथा चिमड़ियां मिलती हैं। ये छोटी-छोटी बेलों पर लगने वाले मध्यम आकार के फल हैं जो कच्ची अवस्था में कड़वे तथा पकने पर खट्टे होते हैं। एक काचरा लगभग 20-30 ग्राम का होता है।

ये दीवाली के आसपास कड़वी से खट्टी पड़नी शुरु होती हैं तथा सर्दियों में उपलब्ध रहती हैं। इनकी सब्जी एवं चटनी बनती हैं तथा सुखा कर भी रखी जाती हैं।

छोटी काचरियों को सिराडिया अथवा चिराडिया कहते हैं। छीलकर सुखाये हुए काचरियों की माला गोटका कहलाती है। जब काचरियों की फांकें काटकर सुखाई जाती हैं तो उन्हें लोथरे कहते हैं। सुखाकर रखी गई काचरियां 2-3 साल तक प्रयुक्त हो सकती हैं। इन्हें अन्य सब्जियों में खटाई अथवा अमचूर की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है।

काचरा

खेतों में फसलों के साथ काचरे की बेलें स्वयं उग आती हैं जिनके फल को मारवाड़ में काचरा तथा पूर्वी राजस्थान में सेंध कहा जाता है। ये काचरियों की तुलना में काफी बड़े होते हैं। एक काचरा पचास ग्राम से लेकर आधा किलो या उससे भी अधिक भार का हो सकता है। ये भी दीपावली के आसपास पकती हैं तथा पूरी सर्दियों में उपलब्ध रहती हैं। इनकी सब्जी बनती है तथा फल एवं सलाद के रूप में कच्ची भी खाई जाती हैं। इन्हें छीलकर तथा इनके गोल-गोल चकरे काटकर छाया में अथवा कम तेज धूप में सुखा लिया जाता है तथा बाद में सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है।

कैर

कैर अथवा करील के फलों को मारवाड़ में कैर, पंजाब से लगते जिलों में डेले तथा ब्रजक्षेत्र से लगते जिलों में टेंटी एवं करील कहा जाता है। इसका फूल लाल रंग का तथा फल हरे रंग का होता है। चैत्र-वैशाख में कैर की झाड़ी में कैर लगते हैं। हरे कैर प्राकृतिक रूप से कड़वे होते हैं।

इन्हें बारी-बारी से नमक के पानी, खट्टी छाछ तथा सादा पानी में भिगोकर इनकी कड़वाहट दूर की जाती है। अब ये हल्के खट्टे तथा हल्के नमकीन हो जाते हैं। हरी कैर से सब्जी और अचार बनता है। इन्हें सुखाकर दो-चार साल तक काम में लिया जा सकता है। सूखी कैर से भी सब्जी एवं अचार दोनों बनते हैं।

गैस, अपच, एसिडिटी आदि में सूखी कैर का पाउडर, मेथी चूर्ण तथा काले नमक के साथ गर्म पानी से लिया जाता है।

सांगरी

खेजड़ी से प्राप्त हरी फलियां सांगरी कहलाती हैं। ये वैशाख तथा ज्येष्ठ माह में तोड़ी जाती हैं। हरी फलियों को उबाल कर उनसे सब्जी बनती है। उबली हुई हरी फलियों को  सुखाकर भी रखा जाता है। आजकल ये देश-विदेश में निर्यात की जाती हैं तथा सूखी हुई सांगरियां हजार रुपए किलो के आसपास बिकती हैं।

अर्थात् इनका भाव काजू एवं बादाम के आसपास रहता है। जब सांगरियां पेड़ पर ही पक जाती हैं और सूख कर पीली पड़ जाती हैं तो उसे खोखा कहते हैं। कर्नल टॉड ने बाजरी के आटे में सांगरी को पीसकर मिलाए जाने का वर्णन किया है, वह सांगरी की यही अवस्था है।

चापटिया

कुमट के पेड़ से प्राप्त फल कुमटी और चापटिया कहलाता है। ये मिगसर (अगहन), पौष, माघ तथा फाल्गुन माह में तोड़े जाते हैं। इनकी सब्जी बनती है तथा इन्हें कैर, गूंदा, मेथी, काचरी, सांगरी आदि के साथ मिलाकर इनकी सब्जी बनाई जाती है। सूखी हुई चापटिया दो तीन साल तक चल सकती है। सूखी हुई चापटियों की सब्जी बनती है तथा इसे रेगिस्तान की अन्य सूखी सब्जियों के साथ मिलाकर भी बनाया जाता है जिसे पचकूटे की सब्जी कहा जाता है।

फोग

फोग एक रेगिस्तानी झाड़ी है जिसकी टहनियां कुआं खोदने के समय बहुत काम आती हैं। इन झाड़ियों पर छोटा फूल लगता है जो स्वाद में हल्का खट्टा होता है। फोग के फूलों को सुखाकर उनका रायता बनाया जाता है। यह लू लगने पर बहुत उपयोगी होता है तथा शरीर में पानी की कमी नहीं होने देता। पेट की छोटी-मोटी बीमारियों में भी फोग का रायता उपयोगी है।

टिण्डा

टिण्डा सामान्यतः सारे देश में पाया जाता है किंतु मारवाड़ में देशी टिण्डे की एक अलग वैराइटी होती है जो बारानी फसलों के बीच स्वतः उगती है। यह हरे रंग में नीले रंग का आभास देती है तथा इसका आकार सामान्य टिण्डे से लगभग दो-तीन गुना होता है। इसके बीज पकने पर काले पड़ जाते हैं। जब देशी टिण्डे में बीज काले पड़ने लगते हैं तब उन्हें काटकर उनके बीज अलग करके फैंक दिए जाते हैं तथा शेष टिण्डे को सुखा लिया जाता है। इस सूखे हुए टिण्डे को वर्ष के अन्य महीनों में सब्जी के रूप में खाया जाता है।

करेला

अब तो करेला धरती के किसी न किसी छोर पर उपलब्ध होने से साल भर ही बाजार में आता है किंतु पहले ऐसा नहीं था। यह कुकरबिटेसी जाति की फसल है जो अपने मौसम में ही फलती-फूलती थी। मारवाड़ में करेले को भी काटकर सुखा लिया जाता था तथा इसे साल के अन्य हिस्सों में सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता था।

मतीरा

मतीरा एक रेगिस्तानी बेल है। दिखने में यह तरबूज की तरह होता है। यह पीने के पानी, विटामिन तथा मिनरल्स का अच्छा स्रोत होता है। इसका गूदा सफेद, हल्का लाल एवं हल्का पीला होता है। इसे फल की तरह कच्चा खाया जाता है तथा इसके कच्चे गूदे एवं छिलके की सब्जी बनती है। इसके छिलकों को सुखाकर रख जाता है तथा उनकी भी सब्जी बनती है।

गूंदा

गूंदा बहुतायत से पाया जाने वाला पेड़ है। इसकी दो प्रमुख वैराइटी होती हैं। छोटी-छोटी गूंदियां पकने पर फल की तरह खाई जाती हैं तथा बड़ी वैराइटी के हरे गूंदे सब्जी एवं अचार के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इस हरे एवं बड़े गूंदे को आधा उबाल कर सुखाया जाता है तथा वर्ष के अन्य हिस्सों में पचकूटे की सब्जी के अन्य अवयवों के साथ मिलाया जाता है। सूखा गूंदा बाजार में भी खूब बिकता है।

ग्वार फली

ग्वार पूरे देश में उपलब्ध होने वाली सब्जी है। इसकी बहुत सी वैराटियां मिलती हैं  किंतु मारवाड़ में इसकी देशी वैराइटी उगती है जिसे आधा उबालकर सुखा लिया जाता है। सूखी हुई फलियों को अलग से अथवा अन्य सूखी सब्जियों के साथ मिलाकर बनाया जाता है। सूखी ग्वार की फली भी बाजार में आसानी से उपलब्ध हो जाती है।

सूखी पत्ता मेथी

मारवाड़ में हरी पत्ता मेथी बहुतायत से प्रयुक्त होती है। इसे अलग से अथवा अन्य पत्तियों के साथ मिलाकर भूजी एवं साग के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। मेथी की पत्तियों को पक जाने पर उन्हें छाया में सुखा लिया जाता है तथा अन्य सब्जियों एवं दालों में मसाले के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। सूखी हुई पत्ता मेथी को आलू के साथ मिलाकर उसकी भूजी भी बनाई जाती है। नागौर की सूखी पत्ता मेथी देश-विदेश में बहुतायत से निर्यात होती है। इसकी महक दूर से ही इसकी उपस्थिति के बारे में बता देती है।

हरी दाना मेथी

हरी दाना मेथी को रेगिस्तनी क्षेत्रों में मूंगिया कहा जाता है। मेथी की फलियों को खोलकर उनमें से हरा दाना निकाला जाता है तथा इसकी सब्जी बनाई जाती है। हरे रंग की सूखी हुई दाना मेथी भी बाजार में उपलब्ध होती है। इसे कुछ घण्टों तक पानी में भिगोकर इसकी रसयुक्त तथा सूखी सब्जी बनाई जाती है। सूखी हुई हरी दाना मेथी को पानी में भिगोकर इसे आलू के साथ मिलाकर भूजी की तरह भी बनाया जाता है।

पीली दाना मेथी

दाना मेथी के पक जाने पर उसका दाना पीला पड़ जाता है। इन दानों को पानी में भिगोकर अथवा उबालकर इन्हें हरी मिर्च, कैरी, ग्वारपाठा आदि के साथ इनकी सब्जी बनाई जाती है। इसे पेट के लिए अत्यंत गुणकारी माना जाता है।

सूखे हुए आलू

सर्दियों के दिनों में आलू में सबसे अच्छा स्वाद होता है। उन दिनों यह बाजार में सस्ता भी होता है। उसे उबालकर उसकी बड़ियां बना लेते हैं या कद्दूकस करके लच्छे बना लेते हैं। इन बड़ियों एवं लच्छों को हल्की धूप में सुखा लिया जाता है तथा उन दिनों में सब्जी के रूप में काम लिया जाता है जब ताजे आलू में प्राकृतिक रूप से स्वाद कम हो जाता है।

सूखे बेर

रेगिस्तान में बेर की कई प्रकार की किस्में पैदा होती हैं। इनमें से छोटी झाड़ियों पर लगने वाले लाल बेर तथा टीकड़ी बेर सुखा कर रख लिए जाते हैं तथा वर्ष के अन्य हिस्सों में प्रयुक्त किए जाते हैं।

इनके अलावा मिर्च, पुदीना, धनिया, कैरी आदि भी सुखाकर पूरे वर्ष काम ली जाती हैं।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source