पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद देश का परिदृश्य बहुत तेजी से बदलने लगा। हिन्दू राजा नेपथ्य में जाने लगे और दिल्ली सल्तनत का विस्तार होने लगा। सर्वाधिक हानि चौहान राज्य की हुई।
जिन चौहानों के भय से चंदेलों, गाहड़वालों तथा चौलुक्यों को नींद नहीं आती थी, जिन चौहानों की मित्रता के लिए प्रतिहार, परमार, तोमर एवं गुहिल लालायित रहते थे, जिन चौहानों ने अरब, सिंध, गजनी एवं गोर के आक्रांताओं को छः सौ वर्षों तक भारत भूमि से दूर रखा था, जिन चौहानों के राज्य में दिल्ली और हांसी छोटी सी जागीरों की हैसियत रखते थे, उन चौहानों ने अब अजमेर से दूर रहकर अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित करने के प्रयास आरंभ कर दिये। उनकी शक्ति रणथंभौर, बूंदी, नाडोल, जालोर, सिरोही तथा आबू के राज्यों में बँट गई।
पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविंदराज ने रणथंभौर की चौहान शाखा की नींव रखी। आगे चलकर इस वंश में हम्मीर चौहान नामक विख्यात राजा हुआ जो अपनी शरणागत वत्सलता, प्रण और वीरता के लिए प्रसिद्ध हुआ। उसने अल्लाउद्दीन के खेमे से भागकर आए हुए मुसलमानों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया।
बूंदी और कोटा के चौहान राज्य भी इसी गोविंदराज के वंशजों ने स्थापित किए। अकबर के समय में बूंदी और रणथंभौर के राज्य गोविंदराज के वंशज सुरजन सिंह के अधीन थे। सुरजनसिंह ने अकबर से इस शर्त पर संधि की कि बूंदी राज्य की राजकुमारियों के डोले कभी भी मुगलों के लिए नहीं भेजे जाएंगे।
नाडोल का चौहान राज्य पृथ्वीराज चौहान के पूर्वज राजकुमारों द्वारा स्थापित किया गया था। जालोर का चौहान राज्य इसी नाडौल राज्य के चौहान राजकुमारों द्वारा स्थापित किया गया था। जालोर के चौहानों द्वारा सिरोही, आबू एवं मण्डोर में अलग चौहान राज्यों की स्थापना की गई थी। जब अल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान हुआ तो उसने जालोर, मण्डोर तथा नाडोल के चौहानों को मारकर उनके छोटे-छोटे राज्यों पर अधिकार कर लिया।
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दिल्ली के अगले प्रबल सुल्तान बलबन ने रणथंभौर एवं नागौर पर अधिकार करके लाहौर से रणथंभौर तक का भाग अपने अधीन कर लिया जिसकी राजधानी नागौर में रखी। इनमें से कुछ राज्यों ने स्वतंत्र होने का प्रयास किया किंतु अलाउद्दीन खिलजी ने रणथंभौर, चित्तौड़, सिवाना एवं जालौर पर अधिकार करके उन्हें फिर से दिल्ली सल्तन के अधीन कर लिया। इस प्रकार कुछ ही वर्षों में सम्पूर्ण चौहान साम्राज्य मुसलमानों के अधीन हो गया।
ई.1192 में तराइन के मैदान में भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद भारत ने जो राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्वतन्त्रता खोई वह ई.1947 में देश की राजनैतिक स्वतन्त्रता के बाद भी कुछ ही अंशों में पुनः प्राप्त की जा सकी और वह भी भारत के तीन टुकड़े होने के बाद। कहने को देश हर तरह से स्वतंत्र है किंतु वास्तविकता यह है कि देश आज भी सांस्कृतिक स्वतंत्रता की प्रतीक्षा कर रहा है।
आर्थिक आजादी के नाम पर आरक्षण, सामाजिक आजादी के नाम पर ओबीसी वर्ग के उदय, दलित चेतना के विस्तार एवं स्त्री विमर्श के आंदोलन तथा धार्मिक आजादी के नाम पर धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक वर्ग के सशक्तीकरण ने भारत वर्ष के भीतर ही भीतर खतरनाक टुकड़े कर रखे हैं। पूरा देश छोटी-छोटी सैंकड़ों जातियों में बंटा हुआ है तथा प्रत्येक जाति को लगता है कि उसका शोषण हो रहा है।
कहने को पूरा देश एक है किंतु देश के नागरिकों में आरक्षण, जातिवाद एवं धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मारकूट मची हुई है। क्षेत्रीयता एवं भाषाई संकीर्णता भी जबर्दस्त है।
जिस दिन देश के सभी लोग अपने स्वार्थों को छोड़कर नैसर्गिक प्रतिभा को सम्मान देंगे, अनुदान के लिए लाइनों में खड़े होने की बजाय अपने पुरुषार्थ से अर्जित धन को बढ़ाने पर पर ध्यान देंगे, सर्वे भवन्तु सुखिनः के मंत्र को अपनाएंगे, उसी दिन सम्राट पृथ्वीराज चौहान तथा उसके पूर्वजों द्वारा भारत वर्ष को महान् राष्ट्र बनाने के लिए देखा गया सपना साकार होगा। यही उन्हें हमारी ओर से सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
हम आगे बढ़ें, अवश्य बढ़ें किंतु एक दूसरे को साथ लेकर बढ़ें। हमारी खुशी को देखकर दूसरे भी खुश हों, हमें ऐसा समाज चाहिए। एक दूसरे पर छींटाकशी करके और एक-दूसरे को पीछे छोड़कर हम खुश हों, हमें ऐसा समाज और देश नहीं चाहिए।
इसी कड़ी के साथ हिन्दू हृदय-सम्राट पृथ्वीराज चौहान को लेकर बनाया गया हमारा यह वी-ब्लॉग धारावाहिक पूर्ण होता है। हम अपने समस्त दर्शकों का आभार व्यक्त करते हैं तथा आशा करते हैं कि शीघ्र ही एक नया विषय लेकर फिर से आपके बीच उपस्थित होंगे। जयहिंद!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता