Sunday, November 10, 2024
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79. उत्तराधिकारी

महाराजा विजयसिंह तथा गोवर्धन खीची, पट्टरानी शेखावतजी के पौत्र भीमसिंह को महाराज का उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाहते थे। यह बात तब की है जब खीची ने राजदरबार छोड़ा नहीं था। जब गुलाब को यह ज्ञात हुआ तो उसने महाराजा से स्पष्ट कहा कि मरुधरानाथ के बाद मेरा दत्तक पुत्र राजकुमार शेरसिंह ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। महाराजा गुलाब की इस बात को सुनकर सहम गया और उसने फिर कभी इस बात की चर्चा किसी से नहीं की। अब जबकि खीची दरबार से निकाल दिया गया, वह सवाईसिंह की हवेली में बैठकर लोगों के बीच केवल इसी बात की चर्चा किया करता था कि पासवान शेरसिंह को टीका दिलवायेगी। जब मृत राजकुमार फतहसिंह के दत्तक पुत्र कुँवर भीमसिंह के कानों तक यह बात पहुँची तो उसने महाराजा से मिलकर सारी बात स्पष्ट करने का निर्णय लिया।

सर्दियाँ अपने चरम पर थीं और दिन अभी निकला ही था कि कुंवर भीमसिंह ने नगर के मध्य में स्थित गुलाबराय के महल की ड्यौढ़ी पर मरुधरानाथ को प्रणाम निवेदन करवाया। अपने सर्वाधिक उद्दण्ड पौत्र को इतनी प्रातः आया देखकर महाराजा का वृद्ध मन किसी अनिष्ट की आशंका से भर गया। अवश्य ही कोई गंभीर बात है, अन्यथा भीमसिंह इतनी प्रातः ड्यौढ़ी पर उपस्थित नहीं होता, महाराजा ने सोचा।

-‘कुँवर को यहीं बुला लाओ।’ महाराजा ने सेवक को आदेश दिया। गुलाब स्नानघर से नहाकर निकली ही थी और ब्रजराज कुँवर के मंदिर की तरफ जा रही थी। उसके लम्बे, घने और घुंघराले बाल पूरी तरह पानी में भीगे हुए थे जिनसे बूंद-बूंद कर टपक रहा पानी उसके पूरे गात को भी गीला कर रहा था। गुलाब को कुँवर के आने की सूचना की भनक लग गई, इससे उसने मंदिर जाने का निश्चय त्यागकर, कक्ष में से विषबुझी कटार उठाकर सावधानी से अपने कपड़ों में छुपा ली और महाराज के निकट आकर खड़ी हो गई। आजकल गुलाब इस कटार को सदैव अपने पास रखती थी, और जब भी कोई राजपुरुष, राजकुमार अथवा सामान्य जन महाराज से मिलने आता तो वह इस कटार को कपड़ों में छिपाकर महाराजा के निकट आ खड़ी होती। जब से खीची दरबार छोड़कर गया था, वह महाराजा की सुरक्षा के लिये बुरी तरह चिंतित रहने लगी थी, उसे किसी पर विश्वास नहीं रहा था।

-‘चिंता न करो गुलाब, वह हमारा पौत्र है।’ मरुधरपति ने गुलाब के केशों से टपकते हुए जल बिंदुओं को लक्ष्य करके कहा।

-‘अन्नदाता! नीति कहती है कि राजा के चाकरों को सदैव सतर्क रहना चाहिये।’ गुलाब ने शांत स्वर में उत्तर दिया।

इससे पूर्व कि मरुधरानाथ और कुछ कह पाते, कुँवर ने आकर मुजरा किया।

-‘आओ कुँवर, यहाँ बैठो, हमारे निकट।’ वृद्ध मरुधरानाथ ने बांह पकड़कर भीमसिंह को अपने बिल्कुल निकट बैठा लिया। मरुधरानाथ के इस व्यवहार को देखकर गुलाब की भौंह पर बल पड़ गये। वैसे भी भीमसिंह ने आज तक अपने दादा की इस पासवान को कभी मुजरा नहीं किया था।

-‘कैसे आना हुआ पुत्र?’ महाराजा ने कुँवर के कंधे पर हाथ रखकर पूछा।

-‘दरबार के दर्शनों की अभिलाषा से।’

-‘दरबार के पास अब कुछ नहीं है कुँवर, यह समय तो तुम लोगों का है। यह बूढ़ा तो जबर्दस्ती मारवाड़ का सिंहासन रोककर बैठा है।’ मरुधरानाथ ने हँसकर कहा।

कुँवर को लगा कि महाराजा के शब्दों में कोई गुप्त संदेश छुपा हुआ है। वे पासवान की उपस्थिति में खुलकर नहीं कह रहे।

-‘ये बच्चे आपके चरणांे की धूल पाकर प्रसन्न हैं महाराज, हमें और क्या चाहिये! राज्य सिंहासन की परवाह किसे है!’ कुँवर ने एक-एक शब्द बोलते हुए महाराजा के मुख मण्डल पर तेजी से बदल रहे रंगों का सावधानी से अवलोकन किया।

-‘बिल्कुल ठीक कहा कुंवरजू ने, सिंहासन की चिंता राजकुमारों को नहीं, राजा को करनी चाहिये।’ महाराज के स्थान पर गुलाब ने प्रत्युत्तर दिया।

-‘राजा अपने सिंहासन की चिंता करे, वहाँ तक तो उचित ही है महाराज किंतु उसकी पासवानें जब राजसिंहासन को लेकर चिंतत हो जायें तो राजकुमारों का चिंतित हो उठना स्वाभाविक है।’ भीमसिंह ने पासवान को दो टूक उत्तर दिया।

 पासवान का उल्लेख होते ही मरुधरानाथ के चेहरे का रंग उतर गया। फिर वह एक शब्द भी नहीं बोला। रंग तो गुलाब के चेहरे का भी बदल गया किंतु भीमसिंह ने इस बात का केवल अनुमान ही किया। पासवान की ओर देखा नहीं। कुंवर काफी देर तक महाराज के उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा। जब वहाँ से कोई उत्तर नहीं आया तो कुछ सोचकर बोला-‘महाराज नीति और धर्म के ज्ञाता हैं। राजपूताने के सारे क्षत्रिय राजा आपकी सलाह से अपने राज्य का संचालन करते हैं…..।’ भीमसिंह ने जानबूझ कर अपनी बात अधूरी छोड़ दी। वह देखना चाहता था कि महाराज उसकी बात में कितनी रुचि ले रहे हैं किंतु महाराजा नीची गर्दन करके बैठे रहा, आगे एक शब्द नहीं बोला।

-‘…….अन्नदाता! जो राजा दूसरे राजाओं को सलाह देता हो, उसके स्वयं के सलाहकार उसे गलत सलाह देकर राज्य को पतन की ओर धकेल दें, यह बड़ी ही विचित्र बात है।’ भीमसिंह ने अपनी बात पूरी की। वह मरुधरानाथ के चेहरे पर एक-एक करके आ-जा रहे रंगों से इतना तो समझ ही गया था कि मरुधरानाथ स्वयं भले ही कुछ नहीं बोलें, किंतु वे उसकी बात में पूरी तरह रुचि रखते हैं।

-‘प्रजा के बीच इस बात की चर्चा है कि महाराज कुँवर शेरसिंह को टीका दे रहे हैं।’

-‘आपको कोई आपत्ति है कुँवर?’ गुलाब ने हस्तक्षेप किया।

-‘मैं अन्नदाता के साथ बात कर रहा हूँ, आपको बीच में बोलने की आवश्यकता नहीं है।’ भीमसिंह ने बुरा सा मुँह बनाकर उत्तर दिया।

-‘ये तुम्हारी दादीसा जैसी हैं पुत्र।’

-‘दादीसा जैसी ही हैं, वास्तव में हैं नहीं। हमारी दादीसा तो मारवाड़ की महारानी शेखावतजी हैं। एक दासी हमारी दादीसा नहीं हो सकती।’ भीमसिंह ने उसी रुखाई से उत्तर दिया।

-‘तुम्हारी इन्हीं बातों के कारण राज के सब मुत्सद्दी, ठाकुर और जागीरदार तुमसे नाराज हो जाते हैं पुत्र।’ महाराज ने व्यथित होकर कहा।

-‘डावड़ियों और पासवानों की गिनती इनमें नहीं होती घणी खम्मा!’ भीमसिंह ने पहले की ही तरह ढिठाई से उत्तर दिया।

-‘जब डावड़ियों और पासवानों को कुछ गिनते नहीं तो उन्हें अपने गढ़ में आने ही क्यों देते हो!’ पासवान ने उत्तेजित होकर कहा।

-‘गढ़ में तो कुत्ते बिल्ली भी आते हैं। क्या उन्हें भी ठाकरों और मुत्सद्दियों में गिन लें?’ भीमसिंह उखड़ गया।

-‘इन ठाकरों और मुत्सद्दियों से तो वफादार कुत्ते बिल्ली ही अच्छे जो युद्ध के मैदान से बिना लड़े ही भाग कर तो नहीं आते।’ पासवान लगभग चीखने लगी।

-‘जो भाग कर आया हो, यह ताना उसे देना, मुझे नहीं।’ भीमसिंह ने भी उसी दृढ़ता से उत्तर दिया।

दोनों के बीच उग्र संवादों का आदान-प्रदान होता देखकर मरुधरानाथ की बेचैनी बढ़ गई। उसे इस बात की भी चिंता थी कि गुलाब कपड़ों में जहर बुझी कटार लिये बैठी है। यदि उसने कुँवर की तरफ फैंक दी और कुँवर को छू भर भी गई तो उसके प्राण लिये बिना न छोड़ेगी।

-‘अच्छा कुँवर, तुम जाओ अभी। टीका किसे देना है, इसका निर्णय हमें करना है।’ महाराज ने कुँवर को निर्देशित किया।

-‘धृष्टता क्षमा करें अन्नदाता, आजकल आप किन सलाहकरों की सलाह पर निर्णय करते हैं, इसे देखकर लगता नहीं कि निर्णय आप करेंगे।’ कुँवर अभी भी संयत नहीं हुआ था।

अचानक मरुधरानाथ उठकर खड़ा हो गया तथा भीमसिंह की दूसरी तरफ आकर बैठ गया। इस प्रकार वह गुलाब तथा कुँवर के बीच आ गया। अब गुलाब अपनी स्थिति बदले बिना कुँवर पर हमला नहीं कर सकती थी। महाराज का यह रुख देखकर गुलाब के चेहरे की रंगत बदल गई। वह तुरंत समझ गई कि महाराज कुँवर के इस तरफ आकर क्यों बैठे हैं किंतु कुँवर कुछ भी न समझ सका। काफी देर तक तीनों में से कोई कुछ नहीं बोला। फिर कुँवर स्वयं ही मरुधरानाथ को मुजरा करके चला गया।

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