राव जोधा के वंश में ऐसे कई व्यक्ति हुए जिन्होंने इतिहास में अपने लिये विशेष स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका एवं एनसाइक्लोपीडिया इण्डिका जैसे विश्व-कोष एवं विकीपीडिया जैसी विश्व स्तरीय वैबसाइट जोधा के वंशजों के परिचय से भरे पड़े हैं। भारतीय सिनेमा ने जोधा के अनेक वंशजों को सिनेमा के पर्दे पर स्थान दिया। भारत सरकार ने जोधा के अनेक वंशजों पर डाक टिकट जारी किये। सैंकड़ों पुस्तकों में जोधा तथा उसके वंशजों का उल्लेख किया गया है। जोधा के कई वंशजों के भारत एवं भारत से बाहर सैंकड़ों मंदिर बने जो आज भी अस्तित्व में हैं। जोधा के अनेक वंशज दुराधर्ष योद्धा, उत्तम चित्रकार, उत्कृष्ट कोटि के साहित्यकार, उच्च स्तरीय भक्त एवं महादानी हुए। उसके वंशज हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये युगों तक जाने जाते रहेंगे।
मीरां बाई
मीरां बाई, राव जोधा के पुत्र दूदा की पौत्री तथा रत्नसिंह की पुत्री थी। मीरां बाई का विवाह महाराणा सांगा के बड़े पुत्र भोजराज से हुआ था। मीरां बाई ने कृष्ण भक्ति करके विश्व स्तर पर ख्याति प्राप्त की तथा वैष्णव भक्तों में एवं हिन्दी साहित्य जगत में अपना नाम अमर किया। मीरां बाई पर भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया।
जयमल राठौड़
राव जोधा के पुत्र दूदा का पौत्र तथा वीरमदेव का पुत्र जयमल राठौड़, मीरां बाई का चचेरा भाई था। उसने अकबर के चित्तौड़ आक्रमण के समय चित्तौड़ दुर्ग की रक्षा करते हुए अद्भुत पराक्रम का परिचय दिया तथा वीरगति को प्राप्त हुआ। अकबर ने इसकी मूर्ति आगरा के महलों में लगवाई। आगरा, दिल्ली, माण्डू तथा काठमाण्डू में भी इसकी मूर्तियां लगीं।
कल्ला राठौड़
जोधा का वंशज कल्ला राठौड़, राव जयमल के छोटे भाई आससिंह का पुत्र था। मीरां, कल्ला राठौड़ की बुआ थी। अकबर के चित्तौड़ घेरे के दौरान राठौड़ जयमल जब अकबर की गोली से घायल हो गया तब इसी कल्ला राठौड़ ने जयमल को अपने कंधों पर बैठा कर युद्ध किया था। दो हाथों से जयमल द्वारा एवं दो हाथों से कल्ला द्वारा तलवार चलाये जाने के कारण कहा जाता है कि कल्लाजी चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। उन्हें चार हाथों वाला लोकदेवता तथा शेषनाग का अवतार माना जाता है। वे सर्पदंश का अचूक उपचार करते थे। मारवाड़, मेवाड़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, गुजरात तथा मध्यप्रदेश में उनके लगभग पाँच सौ मंदिर हैं।
मालदेव
मालदेव, जोधा के वंश में सर्वाधिक प्रतापी राजा हुआ। अपने पराक्रम से उसने जोधपुर राज्य की सीमाएं गुजरात से लेकर आगरा और दिल्ली तक विस्तृत कर दीं। शेरशाह से परास्त होकर हुमायूं ने मालदेव से शरण मांगी किंतु मालदेव ने मना कर दिया। शेरशाह के छल-कपट के कारण मालदेव शेरशाह से परास्त हो गया किंतु शीघ्र ही उसने अपने राज्य पर फिर से अधिकार कर लिया।
चंद्रसेन
जोधा के वंश में उत्पन्न मालदेव का पुत्र चंद्रसेन अपनी वीरता के साथ-साथ स्वातंत्र्य प्रेम के लिये इतिहास में महाराणा प्रताप के समान ही उच्च स्थान रखता है। इसने महाराणा प्रताप के साथ मिलकर अकबर के विरुद्ध राजपूताना के राजाओं का एक संघ बनाया।
कल्ला राठौड़
जोधा का यह वंशज, मारवाड़ नरेश मालदेव का पौत्र तथा रायमल का पुत्र था। इसे सिवाना की जागीर मिली हुई थी। एक बार अकबर ने बूंदी के हाड़ा शासक से कहा कि हमारी इच्छा है कि आपकी पुत्री का विवाह शहजादे सलीम से हो। भरे दरबार में यह प्रस्ताव सुनकर हाड़ा हतप्रभ रह गया। उसने सहायता के लिये दरबार में दृष्टि दौड़ाई। समस्त हिन्दू राजाओं ने दृष्टि नीची कर ली किंतु सिवाना का कल्ला रायमलोत निर्भीकता से मूंछों पर ताव देते हुए हाड़ा की तरफ देखने लगा। कल्ला से दृष्टि मिलते ही हाड़ा को बचाव का रास्ता मिल गया। हाड़ा ने कहा, मेरी बेटी की सगाई हो चुकी है। बादशाह ने पूछा किसके साथ? कल्ला ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहा, मेरे साथ। बादशाह समझ गया कि इस बात में सच्चाई नहीं है किंतु स्वाभिमान की चौखट पर खड़े हिंदू राजा की बात को अभिमानी बादशाह काट नहीं सका। एक हिंदू नारी की अस्मिता की रक्षा के लिये अकबर के दरबार में दिखाये गये इस साहस का भुगतान कुछ दिन बाद कल्ला रायमलोत को अपने प्राणों से हाथ धोकर करना पड़ा।
अमरसिंह राठौड़
यह जोधपुर नरेश महाराजा गजसिंह का पुत्र तथा महाराजा जसवंतसिंह का बड़ा भाई था। यह इतना स्वाभिमानी था कि अपने पिता की गलत बातों को भी सहन नहीं करता था। इसलिये इसे जोधपुर राज्य छोड़ना पड़ा। शाहजहां ने उसे नागौर का पृथक राज्य प्रदान किया। यह अकेला हिन्दू राजा था जिसने शाहजहां के दरबार में नंगी तलवार निकालकर शाहजहां के बख्शी को मार डाला। अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए ही यह शाहजहां के दरबार में युद्ध करता हुआ मारा गया।
जसवंतसिंह
जोधपुर नरेश जसवंतसिंह औरंगजेब के शासन में हिन्दू शक्ति के प्रतीक माने जाते थे। दारा और औरंगजेब के बीचे हुए उत्तराधिकार के युद्ध में जसवंतसिंह ने दारा का पक्ष लिया किंतु धरमत के युद्ध में दारा को कड़ी पराजय का सामना करना पड़ा। औरंगजेब ने जसवंतसिंह को गुजरात का सूबेदार बनाकर छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध लड़ने भेजा। जसवंतसिंह ने छत्रपति के विरुद्ध विशेष सफलता अर्जित नहीं की। इस पर औरंगजेब जसवन्तसिंह से अत्यधिक नाराज हो गया तथा उसे पठानों के विरुद्ध लड़ने के लिये काबुल भेज दिया तथा पीछे से उसके पुत्र पृथ्वीसिंह की हत्या करवा दी। 28 नवम्बर 1678 को काबुल के मोर्चे पर जसवंतसिंह की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु का समाचार पाकर औरंगजेब ने कहा, आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया। उसी समय औरंगजेब की बेगम ने कहा, आज शोक का दिन है क्योंकि साम्राज्य का दृढ़ स्तंभ टूट गया। जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद मारवाड़ राज्य मुगल सल्तनत में मिला लिया गया। जोधा के वंशज 29 वर्ष तक जोधपुर में नहीं घुस सके।
दुर्गादास
दुर्गादास राठौड़, आसकरण का पुत्र था। शिशु-राजा अजीतसिंह को औरंगजेब की दाढ़ में से सफलतापूर्वक निकालने का काम वीर दुर्गादास तथा मुकुनदास खींची ने किया था। जब औरंगजेब ने मारवाड़ खालसा कर लिया तब दुर्गादास ने 29 वर्ष तक राठौड़ राज्य की स्वतंत्रता के लिये हुए युद्ध का नेतृत्व किया। उसके लिये यह दोहा कहा जाता है-
‘डम्बक डम्बक ढोल बाजे, दे-दे ठौर नगारां की।
आसे घर दुरगो नहिं होतो, होती सुन्नत सारां की।’
कर्णसिंह
जोधा का वंशज कर्णसिंह बीकानेर का राजा तथा शाहजहां और औरंगजेब का समकालीन था। उसके समय में औरंगजेब ने भारत के समस्त हिन्दू राजाओं को ईरान ले जाकर उनकी सुन्नत करने का षड़यंत्र रचा। साहबे के सैयद फकीर ने यह बात हिन्दू राजाओं को बता दी। उस समय ये लोग अटक में डेरा डाले हुए थे। बीकानेर नरेश कर्णसिंह ने धर्म की रक्षा के लिये अपना सिर कटवाने का निश्चय करके योजना निर्धारित की कि जब औरंगजेब अटक नदी पार कर ले तब समस्त हिन्दू सरदार अपने-अपने राज्य को लौट जायें। जब औरंगजेब ने नदी पार कर ली तब समस्त हिन्दू नरेशों ने नावें इकट्ठी करके उनमें आग लगा दी। सारे राजाओं ने कर्णसिंह का बड़ा सम्मान किया और उसे जंगलधर पादशाह की उपाधि दी। औरंगजेब को हिन्दू राजाओं के निश्चय का पता लगा तो वह कुरान हाथ में लेकर राजाओं के पास आया और ऐसा करने का कारण पूछा। तब राजाओं ने जवाब दिया, तुमने तो हमें मुसलमान बनाने का षड़यंत्र रच लिया इसलिये तुम हमारे बादशाह नहीं। हमारा बादशाह तो बीकानेर का राजा है। जो वह कहेगा वही करेंगे, धर्म छोड़कर जीवित नहीं रहेंगे। तब औरंगजेब ने कुरान सामने रखकर शपथ ली कि अब ऐसा नहीं होगा, जैसा आप लोग कहोगे, वैसा ही करूंगा। आप लोग मेरे साथ दिल्ली चलो। आप लोगों ने कर्णसिंह को जंगल का बादशाह कहा है तो वह जंगल का ही बादशाह रहेगा। दिल्ली लौटकर औरंगजेब ने कर्णसिंह का राज्य छीनकर औरंगाबाद भेज दिया जहाँ 22 जून 1669 को महाराजा कर्णसिंह ने स्वर्गारोहण किया।
अनूपसिंह
जब महाराजा कर्णसिंह से राजपाट छीना गया तब अनूपसिंह बीकानेर का राजा हुआ। अनूपसिंह संस्कृत भाषा का अधिकारी विद्वान था उसने अनूप विवेक (तंत्रशास्त्र), काम प्रबोध (कामशास्त्र), श्राद्ध प्रयोग चिंतामणि और गीत गोविंद की अनूपोदय नामक टीका लिखी। उसके दरबार में संस्कृत के अनेक विद्वान रहते थे। अनूपसिंह संगीत विद्या में भी निष्णात था। उसने संगीत सम्बन्धी अनेक ग्रंथों की रचना की। अनूपसिंह ने अनूपगढ़ नामक दुर्ग का निर्माण करवाया। उसने देश भर के दुर्लभ संस्कृत-ग्रंथों को खरीद कर बीकानेर के पुस्तकालय में सुरक्षित करवाया ताकि उन्हें औरंगजेब नष्ट न कर सके। इस ग्रंथागार में इतनी बड़ी संख्या में ग्रंथ संग्रहीत हैं कि देखकर आश्चर्य होता है। पुस्तकों की ही भांति मूर्तियों को भी उसने हिन्दुस्तान के विभन्न स्थानों से खरीदकर बीकानेर में संग्रहीत करवाया ताकि उन्हें मुसलमानों द्वारा नष्ट किये जाने से बचाया जा सके। मूर्तियों का यह विशाल भण्डार 33 करोड़ देवताओं का मंदिर कहलाता है।
केसरीसिंह और पद्मसिंह
महाराजा कर्णसिंह के पुत्र केसरीसिंह, पदमसिंह और मोहनसिंह अत्यंत पराक्रमी थे। औरंगजेब ने चतुराई, कपट और कृत्रिम विनय से उन्हें अपने कब्जे में कर रखा था। जब केसरीसिंह और पद्मसिंह दारा शिकोह को खजुराहो के मैदान में परास्त कर औरंगजेब के पास लाये तो औरंगजेब ने अपने रूमाल से उनके बख्तरों की धूल साफ की। पद्मसिंह को बीकानेर राजवंश का सबसे वीर पुरुष माना जाता है। उसकी तलवार का वजन आठ पौण्ड तथा खाण्डे का वजन पच्चीस पौण्ड था। वह घोड़े पर बैठकर बल्लम से शेर का शिकार करता था।
चारुमति
राव जोधा के वंश में उत्पन्न चारुमति किशनगढ़ राज्य की राजकुमारी तथा भगवान की बड़ी भक्त थी। उसने भक्ति भाव के कई पद लिखे हैं। जब चारुमति का भाई एवं किशनगढ़ का राजा मानसिंह अवयस्क था, तब औरंगजेब ने चारुमति का डोला मंगवाया। चारुमति ने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह से कहलवाया कि मैंने आपको अपना पति माना है, मेरे धर्म की रक्षा करें। इस पर राजसिंह चारुमति को ले गया तथा औरंगजेब देखता ही रह गया।
नागरीदास
राव जोधा के वंश में उत्पन्न सांवलदास किशनगढ़ राज्य का उत्तराधिकारी था किंतु उसने अपना जीवन श्री कृष्ण भक्ति में अर्पित किया तथा अपने राज्य में न आकर वृंदावन में ही निवास किया। राधारानी का एक नाम नागरी भी है इसलिये सावंतदास ने अपना नाम नागरीदास रख लिया। उसने किशनगढ़ की चित्रकला शैली का प्रवर्तन किया। इस शैली का बनी-ठनी का चित्र विश्व स्तर पर प्रसिद्ध हुआ। बनी-ठनी पर भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया।
रूपसिंह
राव जोधा के वंश में उत्पन्न किशनगढ़ का राजा रूपसिंह, शाहजहां का समकालीन था। वह भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति करके वैष्णव भक्तों के इतिहास में अमर हुआ। उसने भगवान को अर्पित करके कई पदों की रचना की। वह अच्छा चित्रकार भी था। शाहजहां के पुत्रों के बीच हुए उत्तराधिकार के युद्ध में रूपसिंह ने दारा का पक्ष लिया। शामूगढ़ के युद्ध में इसने औरंगजेब के हाथी की अम्बारी की रस्सी काट दी। इस कारण औरंगजेब हाथी से नीचे गिरने लगा किंतु औरंगजेब के सैनिकों ने औरंगजेब को बचा लिया तथा रूपसिंह के शरीर के टुकड़े कर दिये।
विजयसिंह
जोधपुर नरेश विजयसिंह के समय में मराठे पूरे उत्तर भारत को रौंदते रहे थे। महाराजा विजयसिंह उत्तर भारत का अकेला ऐसा राजा था जो 40 साल तक मराठों से लोहा लेता रहा। तुंगा की लड़ाई में उसने महादजी सिंधिया को परास्त करके ऐतिहासिक जीत प्राप्त की। मआसिरुल उमरा ने लिखा है कि मारवाड़ का राजा विजयसिंह रियाया परवरी, अधीन होने वालों की परवरिश और सरकशों की सर शिकनी में मशहूर है।
मानसिंह
जोधा का वंशज जोधपुर नरेश मानसिंह उद्भट विद्वान था। उसने दो दर्जन से अधिक ग्रंथों की रचना की जो भक्ति एवं शृंगार रस से परिपूर्ण हैं। उसके दरबार में कई कवि एवं विद्वान आश्रय पाते थे। महाराजा मानसिंह ने नाथ आयसनाथ को अपना गुरु बनाया। अंग्रेजी रेजीडेण्ट कप्तान लडलू ने नाथों को पकड़ कर अजमेर भिजवा दिया तथा कई प्रमुख नाथों को देश निकाला दे दिया जिससे मानसिंह राज्य के प्रति उदासीन होकर राज्य त्यागकर मण्डोर चले गये तथा देह का त्याग कर दिया। महाराजा ने 27 कवियों को लाख पसाव तथा 61 कवियों को जागीरें दीं। सुप्रसिद्ध कवि आसिया बांकीदास इनका काव्य गुरु था जिसे राजा अत्यंत श्रद्धा से देखता था किंतु राजा ने बांकीदास को केवल इसलिये देश निकाला दे दिया कि उसने एक पद में नाथों की आलोचना कर दी थी। राजा ने एक बार एक गधे पर भगवा कपड़ा पड़ा हुआ देखा तो उसे श्रद्धा पूर्वक नमस्कार किया। दरबारियों के पूछने पर राजा ने बताया कि जिसने भगवा धारण कर रखा हो वह मेरे लिये पूज्य है।
गंगासिंह
जोधा का वंशज गंगासिंह बीकानेर का प्रतापी राजा हुआ। उसने बीकानेर राज्य में गंगनहर का निर्माण करवाया जिसके कारण बीकानेर के किसानों को हिमालय पर्वत का जल उपलब्ध हो सका। अंग्रेजों के शासन में उसकी बहुत प्रतिष्ठा थी। प्रथम विश्वयुद्ध (ई.1914-1919) में उसकी सेना- गंगा रिसाला, स्वेज नहर, इजिप्ट, पर्सिया एवं इराक के मोर्चे पर लड़ने के लिये गई। वह ब्रिटिश साम्राज्य की पहली युद्ध परिषद तथा बाद में वर्साइ की संधि में भारतीय नरेशों के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुआ। 1917 ई. में लन्दन में आयोजित साम्राज्यिक सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिये जिन तीन भारतीयों को मनोनीत किया गया उनमें से महाराजा गंगासिंह एक था। 9 फरवरी 1921 को उसे नरेन्द्र मण्डल का प्रथम चांसलर चुना गया, 1926 ई. तक वह इस पद पर रहा।
सादूलसिंह
जोधा का वंशज सादूलसिंह बीकानेर का अंतिम राजा था। उसने भारत के एकीकरण में प्रमुख भूमिका निभाई तथा भोपाल नवाब हमीदुल्ला खाँ के नेतृत्व में चल रहे उस षड़यंत्र को विफल कर दिया जिसके द्वारा मुहम्मद अली जिन्ना कुछ राजपूत रियासतों को पाकिस्तान में मिलाकर भारत को सदैव के लिये कमजोर कर देना चाहता था। सरदार पटेल ने इस राजा को पत्र लिखकर उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा कि भारत सदैव आपका ऋणी रहेगा।
महाराजा उम्मेदसिंह
जोधा का वंशज जोधपुर नरेश उम्मेदसिंह प्रजापालक राजा था। उसे आधुनिक जोधपुर का निर्माता कहा जाता है। उसने जोधपुर में नागरिक उड्डयन सेवाएं आरम्भ कीं तथा किसानों के खेतों में सिंचाई के लिये जवाई बांध बनवाया। जब देश का स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर पहुंचा और प्रजातंत्र के झौंके तीव्र हो गये तो इस प्रजापालक राजा ने सरदार समन्द क्षेत्र की भूमि अपने पैतृक पट्टे में लिखवाकर अपने को काश्तकार घोषित कर दिया। कहा जाता है कि एक बार उसने प्रजा के साथ भ्रष्ट आचरण करने वाले अपने एक सामंत को चाबुक से ठीक किया।