Saturday, July 27, 2024
spot_img

46. साँप को दूध

जब तालपुरों का सरदार मीर वीजड़ मारा गया तो उसके भाई फतहअली खाँ ने महाराजा विजयसिंह से वीजड़ की हत्या का बदला लेने का निश्चय किया। उसने वीजड़ के पुत्र अब्दुल्ला और बहनोई अहमुद्दीन के साथ मिलकर पचास हजार सैनिकों की बड़ी सेना तैयार की और मारवाड़ की तरफ बढ़ने लगा। उसका लक्ष्य मारवाड़ की राजधानी जोधपुर था। अपने भाई की हत्या से पगलाये हुए फतहअली खाँ की आँखों से खून बरस रहा था। उसने मन ही मन निश्चय कर रखा था कि राठौड़ों के राजा विजयसिंह के सिर से कम वह किसी कीमत पर समझौता नहीं करेगा!

मरुधरपति को सूचना मिली कि फतहअली खाँ तालपुरों को लेकर मारवाड़ की ओर बढ़ रहा है तो उसने आठों मिसलों के ठाकुरों को फतहअली का मार्ग रोकने के आदेश दिये। ठाकुरों के साथ उसने शिवचंद सिंघवी और बनेचंद को भी अपनी स्वयं की सेना देकर रवाना किया और भीनमाल से शाहमल लोढ़ा को अपनी सेना लेकर इन ठाकुरों की सहायता के लिये पहुँचने का आदेश दिया।

आठ हजार सैनिक सांचोर से भाटकी और बीरावा होते हुए सिन्ध की तरफ अग्रसर हुए और चौबारी नामक स्थान पर जा पहुँचे। तब तक तालपुरों की सेना चौबारी के पर्याप्त निकट आ पहुँची थी। इसलिये राठौड़ चौबारी में ही खाइयाँ खोद कर बैठ गये। 14 फरवरी 1781 को तालपुरों ने अचानक राठौड़ों पर हमला किया। राठौड़ों का अनुमान था कि तालपुरे आक्रमण करने में समय लेंगे तथा इतनी शीघ्र आक्रमण नहीं करेंगे किंतु तालपुरों ने राठौड़ों के सारे अनुमानों को गलत सिद्ध करते हुए बड़ी तेजी से धावा किया। बहुत सारे तालपुरे खाईयों तक चले आये। राठौड़ संभल नहीं सके और देखते ही देखते भारी मारकाट मच गई।

थोड़े ही समय में खंदकें खून से भर गईं फिर भी राठौड़ों ने बारूद फैंकना बंद नहीं किया। शाम होते-होते राठौड़ों की युद्ध सामग्री समाप्त हो गई। एक समय ऐसा भी आया जब राठौड़ सरदारों को लगने लगा कि इस रण से एक भी राठौड़ जीवित बचकर नहीं जा पायेगा किंतु रात्रि हो जाने से युद्ध थम गया और राठौड़ों को सोचने के लिये समय मिल गया।

महेसदास कूंपावत और खूबचंद सिंघवी ने बचे हुए राठौड़ सैनिकों को आदेश दिया कि जितनी शीघ्र हो सके, चौबारी से निकलकर सांचौर की तरफ चलो, नई सेना आने पर तालपुरों को फिर से देखा जायेगा किंतु राठौड़ों के लिये रात के अंधेरे का लाभ उठाकर भी चौबारी से निकलना सरल नहीं था। इसलिये पोकरण ठाकुर सवाईसिंह चाम्पावत ने रात में ही तालपुरों की एक चौकी पर धावा बोला। इससे तालपुरों का ध्यान एक स्थान पर ही केन्द्रित हो गया। तालपुरों को समझ में नहीं आता था कि रात के अंधेरे में वे किस पर वार करें! शत्रु और मित्र का भेद नहीं हो पाता था इसलिये तालपुरे सिंध की ओर तेजी से भागे। जबकि राठौड़ घात लगाकर आये थे, उन्होंने दिशा को लक्ष्य करके अपनी रणनीति बनाई थी इसलिये वह सहज ही जान जाते थे कि सामने वाला शत्रु है या मित्र!

पूरी रात तालपुरे आगे भागते रहे और सवाईसिंह अपने राठौड़ों को लेकर उनके पीछे भागता रहा। तड़का होने से कुछ ही समय पहले सवाईसिंह चाम्पावत पीछे मुड़ा। उसका अनुमान था कि अब तक राठौड़ों की सेना चौबारी से निकलकर काफी दूर जा पहुँची होगी।

तालपुरे एक बार भागे तो फिर भाग ही गये। फतहअली खाँ ने उन्हें फिर से रण में चलने के लिये बहुत मनाया, आँखें दिखाईं, प्रलोभन दिये किंतु तालपुरों की हिम्मत फिर से राठौड़ों का सामना करने की नहीं हुईं। उन्हें लगता था कि जो राठौड़ दिन के उजाले में तालपुरों के द्वारा जान से मार डाले गये थे, वही रात के अंधेरे में फिर से जीवित होकर लौट आये थे। ऐसी विकट सेना से लड़ने की हिम्मत कौन कर सकता था!

तालपुरों के मन में राठौड़ों का ऐसा भय बैठा कि यदि दिन के उजाले में आकाश में उड़ते हुए किसी पंछी की छाया भी रेतीले धोरों पर दिखाई देती तो उन्हें लगता कि राठौड़ फिर से लौट आये। इसलिये वे तब तक भागते रहे जब तक कि उन्हें सिंध की भूमि दिखाई नहीं दी। फतहअली खाँ भी अपनी सेना के साथ-साथ सिंध तक घिसटता हुआ सा चला गया। उसे भय हो गया था कि यदि वह अपनी सेना से पीछे रह गया तो राठौड़ अवश्य ही उसे घेर कर मार डालेंगे। जो राठौड़ वीजड़ और उसके साथी अमीरों को डेरों में घुसकर मार सकते थे, जो राठौड़ बुरी तरह हार जाने के बाद भी रात के अंधेरे में हमला करने से नहीं डरते थे, उन राठौड़ों के नाम से तालपुरों की छाती यदि फटने लगी थी तो इसमें आश्चर्य ही क्या था!

जब सवाईसिंह चाम्पावत कुछ विजयी सिपाहियों के साथ जीवित बचकर सांचौर से जोधपुर पहुँचा तो महाराजा विजयसिंह ने पिछली सारी बातें भूलकर उसे छाती से लगा लिया। उसे अपने पास बैठाया, उसकी और उसके पूर्वजों की प्रशंसा की और सवाईसिंह पर कृपालु होकर उसे अपना प्रधान बना लिया। मरुधरानाथ ने उसके वेतन में वृद्धि करते हुए उसे बधारे में मजल और दूनाड़ा गाँव भी प्रदान किये।

समय-समय की बात है। इसी सवाईसिंह के विद्रोही दादा देवीसिंह चाम्पावत को महाराजा विजयसिंह ने छल से जोधाणे के गढ़ में कैद किया था और वह महाराजा की कैद में ही मारा गया था। इसी सवाईसिंह के विद्रोही पिता सबलसिंह को कूंपावतों ने दिन दहाड़े बंदूक से मार डाला था। आज उन्हीं का रक्त सवाईसिंह एक बार फिर महाराजा का प्रधान नियुक्त हुआ था। महाराजा ने सवाईसिंह की अमूल्य सेवा को देखते हुए उसके पिता और पितामह के सारे अपराध क्षमा कर दिये थे किंतु महाराजा नहीं जानता था कि वह साँप को दूध पिला रहा था। ऐसा साँप जो एक दिन अजगर बनकर महाराजा के पूरे खानदान को निगल जाने के लिये जोधाणे पर झपटने वाला था।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source