Sunday, May 19, 2024
spot_img

कच्छी घोड़ी लोकनृत्य

राजस्थान के मरुस्थल में स्थित शेखावाटी क्षेत्र के नृत्यों में गींदड़, चंग, डांडिया तथा कच्छी घोड़ी लोकनृत्य अपनी अलग छटा रखते हैं। इनमें से गींदड़ तथा कच्छी घोड़ी का उद्भव शेखावाटी में माना जाता है।

शेखावाटी से बाहर निकलकर कच्छी घोड़ी लोकनृत्य पूरे भारत में प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य में परम्परागत रूप से केवल पुरुष कलाकार ही भाग लेते थे किंतु अब महिलाएं भी नृत्य मण्डली में शामिल होती हैं।

कच्छी घोड़ी लोकनृत्य के कलाकार बांस की खपच्चियों से घोड़ी की डमी अर्थात् ढांचा बनाते हैं। घोड़ी का मुंह बनाने में कागज की लुगदी का प्रयोग किया जाता है।घोड़े की इस डमी पर आकर्षक रंग के कपड़े का खोल चढ़ा दिया जाता है।

यह खोल चटख रंगों से बनाया जाता है तथा उस पर कांच की कढ़ाई की जाती है। इसे कच्छी घोड़ी कहा जाता है। कच्छी घोड़ी के पैर नहीं होते तथा इसके पेट में एक बड़ा सा छेद होता है जिसमें घुसकर नर्तक कच्छी घोड़ी को अपनी कमर से बांध लेता है।

कच्छी घोड़ी लोकनृत्य के कलाकार खड़े होकर नृत्य करते है। घोड़े के चारों ओर धरती तक लम्बा कपड़ा लटकता है जो नृतक के पैरों को ढक लेता है। नर्तक की टांगें छिप जाने से दर्शकों को लगता है कि नर्तक घोड़ी पर बैठा है।

कच्छी शब्द हिन्दी के काछ शब्द से बना है। काछ से ही कच्छा एवं कच्छी शब्द बने हैं। काछ ऐसी छोटी धोती को कहते हैं जो घुटनों से ऊपर कमर के चारों ओर लपेटी जाती है। इस नृत्य में घोड़े की डमी को कमर के चारों ओर काछ की तरह बांधा जाता है, इसलिए इसे कच्छी घोड़ी लोकनृत्य कहा गया।

इस नृत्य का कोई लिखित इतिहास प्राप्त नहीं होता किंतु आजादी से पहले उन्नीसवीं सदी में कच्छी घोड़ी लोकनृत्य के कुछ संदर्भ मिलते हैं। आजादी से पहले के दिनों में जब कच्छी घोड़ी के नर्तक, यह नृत्य करते थे तब उनके साथी गायक कलाकार, शेखावाटी के उदार हृदय वाले डाकुओं की गाथाएं गाते थे।

डूंगजी-जवारजी उसी समय के डाकू हैं जो अंग्रेजी कोष को लूटकर गरीबों में बांट देते थे। भंवरिया नामक एक ऐसे ही डकैत की गाथा गाई जाती है जिसे राजस्थान का रॉबिन हुड कहा जा सकता है।

कच्छी घोड़ी लोकनृत्य के कलकार परम्परागत रूप से हाथ में तलवार लेकर नाचते थे, उनके पैरों में बंधे घुंघरू तेज लय में ध्वनि निकालते थे। कलाकारों द्वारा तलवार ऐसे घुमाई जाती है मानो कोई युद्ध चल रहा हो। हाथ में तलवार लेकर घुमाने का आशय उन डाकुओं के वीरता पूर्ण कारनामों को जनता के समक्ष प्रभावी बनाने के लिए था।

जैसे-जैसे गाथा आगे बढ़ती थी, कथानक के अनुसार नृतक की भंगिमाएं भी बदलती रहती थीं।

कलाकारों द्वारा प्रायः पुष्प के खुलने की आकृति बनाकर कच्छी घोड़ी लोकनृत्य का आरंभ किया जाता था। इसी प्रकार नृत्य का अंत पुष्प के बंद होने की आकृति बनाकर किया जाता था।

बाद में यह नृत्य, विवाह समारोहों में बारातियों के मनोरंजन के लिए होने लगा। धीरे-धीरे इस नृत्य की स्वीकृति सभी सामाजिक समारोहों और सरकारी उत्सवों आदि में हो गई। मेलों में भी यह नृत्य किया जाने लगा।

अब तो राजस्थान के सैंकड़ों परिवार इस नृत्य को अपनी आजीविका के रूप में अपनाते हैं।

यह नृत्य एक कलाकार द्वारा भी किया जाता है तथा समूह में भी किया जाता है। नतृक सामान्यतः धोती, कुर्ता, साफा धारण करते हैं।

घोड़े की डमी पर वैसे ही अलंकरण किया जाता है, जैसा कि असली घोड़े का किया जाता है। उसके साथी वादक बांसुरी तथा ढोल बजाते हैं।

राजस्थान में यह कच्छी घोड़ी लोकनृत्य ढोली, सरगरा, भांभी आदि समुदाय के कलाकारों द्वारा किया जाता है। गुजरात तथा महाराष्ट्र में भी इस नृत्य का प्रचलन प्रचुर रूप में हो गया है। तमिलनाडु में पोइक्कल कुठिराज अट्टम नामक नृत्य बहुत कुछ कच्छी घोड़ी लोकनृत्य से मिलता-जुलता है।

तंजावुर के मंदिर में किए जाने वाले इस नृत्य में लकड़ी के पैरों का प्रयोग किया जाता है ताकि ऐसा लगे मानो घोड़े के खुरों की आवाज आ रही है।

बदलते हुए समय के साथ कच्छी घोड़ी का स्वरूप पूरी तरह बदल गया है। कलाकार अब हाथ में तलवार लेकर नहीं नाचते। वे लोगों का मनोरंजन करने के लिए कच्छी घोड़ी के साथ महिला कलाकारों को भी नचाते हैं। कच्छी घोड़ी लोकनृत्य के साथ गाई जाने वाली वीर गाथाएं लुप्त होती जा रही हैं तथा वाद्यों के स्वर भी बदले हुए जमाने के साथ पूरी तरह बदल गए हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source