Friday, July 26, 2024
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मरुभाषा का वेलि साहित्य !

‘वेलि’ शब्द का निर्माण, संस्कृत संज्ञा ‘वल्लि’ से अपभ्रंश होकर हुआ है। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषाओं में वल्लि का अर्थ ‘बेल’ होता है। डिंगल में भी ‘वेलि’ को इसी अर्थ में ग्रहण किया गया है। साहित्यिक विधा की दृष्टि से वेलि साहित्य का आशय लम्बी कविता से लिया जा सकता है।

वेलि साहित्य का रचना काल

वेलि साहित्य 11वीं शती से लेकर 19वीं शती तक की अवधि में रचा गया। अब तक ज्ञात वेलि रचनाओं में ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के लेखक रोड़ो द्वारा रचित राउलदेव को सबसे पुरानी वेलि माना जाता है।

वेलि साहित्य की विषय वस्तु

वेलि रचनाओं को मुख्य रूप से तीन भेदों में विभक्त किया जा सकता है-

1. जैन वेलि रचनाएं,

2. भक्ति रस वेलि रचनाएं एवं

3. वीर रस वेलि रचनाएं।

जैन-धर्म वेलि रचनाएं

जैन वेलि रचनाओं का विषय जैन धर्म से सम्बन्धित है तथा इनमें काव्य सौष्ठव गौण है।

भक्ति सम्बन्धी वेलि रचनाओं में परमात्मा एवं उसकी लीलाओं का गुणगान किया गया है। धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों की कथाओं को भी वेलि रचनाओं का आधार बनाया गया है।

वीर रस वेलि रचनाएं

वीररस वेलि रचनाओं में राजाओं एवं सामंतों के वीरतापूर्ण कार्य, स्वामिभक्ति, विद्वता, उदारता, प्रेम भावना, राजाओं अथवा सामंतों की वंशावली आदि का उल्लेख हुआ है। इन रचनाओं में नायिकाओं का नख-शिख शृंगार, षड्ऋतु वर्णन एवं युद्ध में जाते हुए अथवा युद्ध में लड़ते हुए नायक की शारीरिक विशेषताओं को भी स्थान दिया गया है।

वेलि साहित्य की भाषा

भाषा विद्वानों के अनुसार राजस्थान की प्रारम्भिक प्रमुख भाषा, मरु भाषा है। कुछ स्थानीय परिवर्तनों के साथ मरु भाषा साहित्यिक भाषा भी रही है। आठवीं शताब्दी ईस्वी में उद्योतन सूरि द्वारा लिखित कुवलयमाला नामक ग्रंथ में मरु, गुर्जर, लाट और मालवा प्रदेश की भाषाओं का उल्लेख है। जैन कवि भी अपने ग्रंथों की भाषा को मरु भाषा कहते हैं।

गोपाल लाहौरी ने पृथ्वीराज राठौड़ द्वारा लिखित ‘वेलि’ नामक ग्रंथ की भाषा को मरु भाषा माना है। कुछ विद्वानों के अनुसार वेलि साहित्य की भाषा डिंगल है। वस्तुतः डिंगल ही मरुभाषा का सर्वाधिक प्रतिनिधि रूप है इसलिये वेलि साहित्य को डिंगल काव्य के अंतर्गत ही माना जाना चाहिये।

वेलि रचनाओं का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्व

वेलि रचनाओं के अध्ययन से डिंगल काव्य की साहित्यिक विशेषताओं को समझने में सहायता मिलती है। इनमें भाव, भाषा और शैलीगत ऐसे उपकरण विद्यमान हैं जो उस काल की काव्य रचना परम्परा को समझने में सहायता करते हैं। ये रचनाएं इतिहास लेखन के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।

प्रमुख वेलि रचनाएं

राउलदेव री वेलि

ग्यारहवीं शती के लेखक रोड़ो ने इस ग्रंथ की रचना की। यह पहली साहित्यिक वेलि मानी जाती है। इसमें विविध नायिकाओं का नख-शिख वर्णन है। सम्पूर्ण रचना अलंकारपूर्ण एवं अद्भुत है।

किसनजी री वेलि

सांखला करमसी रूणेचा ने किसनजी री वेलि की रचना की। वे राजपूत जाति के भक्त कवि थे। इस वेलि का वास्तविक रचना काल तो ज्ञात नहीं है किंतु यह, पृथ्वीराज राठौड़ द्वारा रचित ‘वेलि क्रिसन रुक्मणि री’ से बहुत पुरानी है।

वेलि राठौड़ देईदास जैतावत री

इस वेलि का रचनाकार भाण का पुत्र ‘अखा’ जोधपुर नरेश मालदेव का दरबारी कवि था। इस वेलि की एक ही प्रति मिली है जो बीकानेर की अनूप लाइब्रेरी में सुरक्षित है। यह वेलि जोधपुर नरेश मालदेव के प्रसिद्ध सामन्त देवीदास पर कही गई है। मालदेव के प्रसिद्ध सेनापति पृथ्वीराज और देवीदास सगे भाई थे।

इस वेलि में देवीदास की वीरतापूर्ण उपलब्धियों का वर्णन किया गया है। इसका कथानक इस प्रकार है- वि.सं. 1612 में अजमेर के सूबेदार हाजी खां पर महाराणा उदयसिंह (चित्तौड़), कल्याणमल (बीकानेर) और जयमल (मेड़ता) आदि की सेनाओं ने चढ़ाई की।

जोधपुर के राव मालदेव ने अपने सामन्त देवीदास को हाजी खां की सहायता करने के लिए भेजा। हरमाड़ा के निकट दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ जिसमें देवीदास की वीरता के कारण हाजी खां जीत गया। इस वेलि में देवीदास की वीरता का वर्णन इस प्रकार किया गया है-

मिलि जैमलि राणा कल्यांण मेड़तै,
घण्ण ज वैहता विदर घण।
बळ छांडीयौ तुहारे बोले,
त्रिहुं ठाकरे जैत तण।।

महाराजा श्रीरायसिंघजी री वेलि

यह वेलि बीकानेर नरेश महाराजा रायसिंह पर कही गई है। 43 छंदों की इस रचना में कवि ने रायसिंह के बचपन का चमत्कारपूर्ण वर्णन किया है तथा उनके यौवनकाल की उपलब्धियों को भी अच्छा स्थान दिया है। इस वेलि के अनुसार नागौर पर चढ़ाई के समय राजा कल्याणमल के साथ रायसिंह भी उपस्थित था।

इस रचना में रायसिंह द्वारा सिरोही के राव सुरताण देवड़ा तथा गुजरात के मुस्लिम शासकों का दमन किये जाने का अच्छा वर्णन किया गया है।

इस वेलि के अनुसार रायसिंह का विवाह उदयपुर और जैसलमेर की राजन्याओं से हुआ। एक बार अकबर, महाराजा रायसिंह के एक सेवक तेजसिंह से रुष्ट हो गया। अकबर ने महाराजा से कहा कि वह तेजसिंह को अकबर के पास भेजे किंतु महाराजा ने तेजसिंह को अकबर के हवाले नहीं किया।

वेलि के अनुसार अकबर, रतनसिंह को प्रसन्न रखने का पूरा प्रयास करता था तथा उसकी पदोन्नति करता रहता था। वेलि में कहा गया है-

साम्हो साह हुवो सरमिंदो,
मनावीयो संघ मोट।
गढ़ गिरनार तणै बांधै गळ,
कलम दीध चौरासी कोट।।

वेलि क्रिसन रुकमणी री़

बीकानेर नरेश रायसिंह के अनुज तथा अकबर के दरबारी कवि पृथ्वीराज राठौड़ ने वेलि क्रिसन रुक्मणि की रचना की। पृथ्वीराज का जन्म वि. सं.1606 में बीकानेर में हुआ था। इन्हें पीथल के नाम से ख्याति प्राप्त थी। ये रणकुशल योद्धा, ईश्वर के भक्त तथा वीररस के कवि थे। इनके द्वारा रचित ग्रंथ ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ को राजस्थानी भाषा का सर्वोत्कृष्ट गं्रथ माना जाता है। इसमें किया गया नख-शिख वर्णन, षड्ऋतु वर्णन तथा वयः संधि वर्णन भारतीय साहित्य में अपनी अलग पहचान रखता है।

पृथ्वीराज राठौड़ संस्कृत, डिंगल, पिंगल, दर्शन, ज्योतिष, काव्य शास्त्र, संगीत एवं युद्ध कला में पारंगत थे। टैस्सिटोरी ने इन्हें डिंगल का ‘होरेस’ कहा है। कर्नल टॉड ने पीथल के लिये कहा था कि इनके काव्य में दस सहस्र घोड़ों का बल है। नाभादास ने इनकी गणना भक्तमाल में की है। दुरसा आढ़ा ने ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ को पाँचवा वेद कहा है।

राव रतन री वेलि

इस वेलि का रचयिता डिंगल के सुप्रसिद्ध कवि जाड़ा मेहडू का पुत्र कल्याणदास था। कल्याणदास को जोधपुर नरेश गजसिंह ने लाख पसाव से सम्मानित किया था।यह वेलि बूंदी के शासक राव रतन हाड़ा पर लिखी गई है। रतन हाड़ा ने खुर्रम के विद्रोह को दबाने में प्रमुख भूमिका निभाई तथा अनेक युद्धों में भाग लिया। वह अपनी आन-बान एवं मर्यादा के लिये भी प्रसिद्ध था। इस वेलि में रतनसिंह के पूर्वजों का क्रमवार वर्णन किया गया है तथा रतनसिंह के गुणों और उसकी उपलब्धियों को पाण्डित्यपूर्ण ढंग से लिखा गया है।

वेलि साहित्य में इसे क्लिष्टतम रचना मानी जाती है। वेलि होते हुए भी यह वस्तुतः एक खण्ड काव्य है तथा इसमें 121 छंद और तीन षटपदियां हैं। यह वेलि रचनाओं में सबसे बड़ी है।

चांदाजी री वेलि

यह वेलि मेहा दूलासणी द्वारा मेड़ता के राव वीरमदेव के पुत्र चांदा पर कही गई है। इस वेलि की केवल एक प्रति मोतीचंद खजान्ची बीकानेर के संग्रह में मिली है। इस वेलि में चांदा द्वारा लड़े गये अनेक युद्धों और वीरतापूर्ण उपलब्धियों का वर्णन है। चांदा, राव मालदेव के बड़े सामंतों में से था। इस वेलि में कहा गया है कि मालदेव ने अपने राज्य का विस्तार करने के लिये बीकानेर, अजमेर, ईडर तथा नागौर पर आक्रमण किया।

इन युद्धों में चांदा ने मालदेव की तरफ से भाग लिया तथा अत्यंत वीरता का प्रदर्शन किया। अंत में मालदेव ने चांदा के पिता वीरमदेव के मेड़ता राज्य को भी नष्ट कर दिया। इसका बदला चांदा ने चित्तौड़ में नारायणदास को मारकर लिया। चांदा ने नागौर के दौलतखां से भी युद्ध किया जिसमें दौलतखां और चांदा दोनों ही मारे गए। इस सम्बन्ध में वेलि में कहा गया है-

गडुथळ हेक हुवा गोरीदळ,
घूमै हेव विहंडियां धाय।
पूतळियां लग चंद परठवी,
मीर तणै सुजड़ी तन मांय।।

राठौड़ रतनसिंह की वेलि

इसका रचनाकार दूदो विसराल है। चौपासणी शोध संस्थान जोधपुर ने परम्परा नामक पत्रिका में इस रचना का पहली बार प्रकाशन किया था किंतु यह अंक अब उपलब्ध नहीं होता। यह वेलि मालदेव के सामंत एवं जैतारण के जागीरदार रतनसिंह उदावत पर लिखी गई है। इस वेलि के अनुसार वि.सं. 1612 में जब अकबर ने हाजीखां को परास्त करने के लिए अजमेर पर फौज भेजी तब उस फौज ने जैतारण पर भी चढ़ाई की।

रतनसिंह ने राव मालदेव से सहायता मांगी किंतु मालदेव ने सहायता नहीं भेजी। इस पर भी रतनसिंह ने अपनी छोटी सी सेना को लेकर बड़ी वीरता से मुगल बादशाह की सेना से युद्ध किया। इस वेलि में रचनाकार ने रतनसिंह को दूल्हा तथा अकबर की फौज को विषकन्या बताकर अच्छा रूपक बांधा है। यह शृंगार और वीररस से ओतप्रोत एक अद्भुत रचना है।

महाराजा श्री सूरसिंहजी री वेल: इस वेलि का रचयिता कवि गाडण चोला बीकानेर नरेश सूरसिंह का आश्रित कवि था। रायसिंह के बाद उसका पुत्र सूरसिंह बीकानेर का शासक हुआ। यह वेलि उसी पर कही गई है। यह 31 छंदों की रचना है। इस वेलि के पूवार्द्ध में महाराजा सूरसिंह के पूर्वजों के नाम हैं तथा उत्तरार्द्ध में सूरसिंह के गुणों की तुलना अन्य शासकों से करते हुए सूरसिंह की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है।

महाराज कुमार अनूपसिंहजी री वेलि

इस वेलि का रचयिता गाडण वीरभांण था। यह वेलि बीकानेर के राजकुमार अनूपसिंह पर कही गई है जो आगे चलकर भारत के विख्यात राजाओं में गिना गया। इस वेलि में अनूपसिंह के राजकुमार काल की उपलब्धियों का वर्णन है जिसके अनुसार राजकुमार अनूपसिंह ने अनेक युद्धों में भाग लिया तथा औरंगजेब के दरबार में कुंवर पदे में ही ख्याति और महत्व प्राप्त किया।

उपरोक्त वेलियों के साथ-साथ अन्य वेलियां भी मिलती हैं। रामा सांदू ने ‘राणा उदयसिंघ री वेलि’ की रचना की। कवि समधर ने ‘डूंगरसिंघ री वेलि’ की रचना की। वेलि साहित्य में कतिपय साहित्यिक दोष भी विद्यमान हैं। स्वामि-निष्ठा एवं काव्य-चमत्कार की प्रवृत्ति के कारण वीरत्व एवं सौंदर्य प्रशंसा के समय कवियों द्वारा किया गया अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन इन वेलियों का सबसे बड़ा दोष है।

जन सामान्य के पक्ष तथा जन जीवन की इनमें पूर्णतः उपेक्षा की गई है। इस कारण आधुनिक युग में वेलि साहित्य परम्परा अपना आधार खो बैठी और स्वयं भी इतिहास का ही विषय बनकर रह गई। फिर भी वेलि साहित्य मरुभाषा की अनूठी थाती है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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