Saturday, July 27, 2024
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राजस्थान में भूमि वन एवं कृषि

इस आलेख में राजस्थान में भूमि वन एवं कृषि शब्दावली का परिचय दिया गया है। राजस्थान में वर्षा बहुत कम होती है फिर भी लगभग पूरे राजस्थान में किसी न किसी प्रकार की फसल उगाई जाती है। राजस्थान का किसान भारत के अन्य प्रांतों के किसानों की तुलना में अत्यधिक परिश्रमी, धैर्यवान एवं निर्धन है।

भूमि के प्रकार से सम्बन्धित शब्द

कुण्डल: पहाड़ों के बीच की धरती को कुण्डल कहा जाता है।

गेंवाल: ऐसी भूमि जिस पर गेहूँ की खेती हो सके।

बेवड़: रेत के टीलों के बीच की धरती को बेवड़ कहा जाता है।

वन से सम्बन्धित शब्द

ओरण (अरण्य): गांव के बाहर जंगल के लिये निर्धारित क्षेत्र ओरण कहलाता है। इसमें से कोई भी व्यक्ति हरा पेड़ नहीं काट सकता।

गौचर: पशुओं की चराई के लिये छोड़ी गई भूमि गौचर कहलाती है।

छंगाई: वृक्षों की पतली शाखाओं को काटना छंगाई कहलाता है।

कृषि कार्य में काम आने वाले शब्द

उनाळू: जो फसल गर्मियों में अर्थात् चैत्र-वैशाख में पकती है, उसे उनाळू कहते हैं। अर्थात् रबी की फसल को उनाळू कहते हैं। उनाळू की साख में गेहूँ, जौ, चना, उड़द, मसूर, बटला, तूर और अरहर की कटाई की जाती है।

उफणना: भूसे से दाने को अलग करने के लिये बाल, सिट्टे या भुट्टे को कुचलकर, उसे छाज या टोकरी में भरकर नीचे गिराया जाता है जिसे उफणना कहते हैं।

कड़बी: पकी हुई फसल में से दाने अलग करने के बाद सूखे हुए पौधों के भारे को कड़बी कहा जाता है।

कणाबंदी: खेत से मिट्टी को उड़ने से बचाने के लिये खेत में 50 से 250 फीट की दूरी पर, सिणिया, कैर, आक, बुआड़ी तथा फोग की कटी हुई झाड़ियों से 1.5-2 फुट ऊँची कतारें बनाई जाती हैं, इसे कणाबंदी कहते हैं। कणा का अर्थ किनारा होता है।

कणारा: धान के कणों को सुरक्षित रखने के लिये मिट्टी और गोबर से बनाये जाने वाली बड़ी कोठियां कणारा कहलाती हैं। कोठियां कणारा से छोटी होती हैं। चोकोर आकार की कोठी को कोठलिया कहते हैं।

कुत्तर: पशुओं को खिलाने के लिये फसली पौधों के तने एवं पत्तियों आदि को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटना कुत्तर करना कहलाता है।

कूंता: फसल उत्पादन का आकलन करना कूंता कहलाता है।

खड़ाई: खेत को बोने से पहले उसमें देशी हल से जुताई की जाती है, उसे खड़ाई करना कहते हैं।

खाखला: मोठ की फसल में से दाने अलग करने के बाद जो वानस्पतिक अवशेष बचता है उसे खाखला कहते हैं।

गाठा: बाजरे की फसल के पकने पर गाठा किया जाता है। इसमें उपज को खूटा जाता है।

डूर: बाजरी के सिट्टे जिसमें बीज होते हैं, उसके अलग करने के बाद की सामग्री डूर कहलाती है।

डोका: फसली पौधों के तने के अवशेष को डोका कहा जाता है।

निदाण: खेत में खड़ी फसल के बीच से खरपतवार हटाने की प्रक्रिया को निदाण कहते हैं।

बिजूका: खेत में पशु पक्षियों एवं जानवरों को डराने के लिये खड़ा किया गया पुतला बिजूका कहलाता है। इसे हड़का, बिदकणा, टांऊ, ओडो, ओडको, अड़वो, ओझको आदि नामों से भी सम्बोधित किया जाता है।

माट (माठ): खेत की मेंड़ को माट या माठ कहते हैं।

मूंगों का सार: मूंग की फसल में से मूंग के दाने अलग करने के बाद जो वानस्पतिक अवशेष बचता है, उसे मूंगों का सार कहते हैं।

लाटा: जब  बाल, सिट्टे या भुट्टे में से दाना अलग करने की प्रक्रिया किसी मशीन से न करके हाथों से की जाती है तो उसे लाटा कहते हैं।

साख: साख का अर्थ होता है- फसल का शाखा पर पकना। उनाळू की साख का अर्थ होता है जब उनाळू (रबी) की फसल पकती है। स्याळू की साख का अर्थ होता है जब स्याळू (खरीफ) की फसल पकती है।

स्याळू: जो फसल सर्दियों में अर्थात् आसोज-कार्तिक में पकती है, उसे स्याळू कहते हैं। इस फसल को वर्षाकाल में बोते हैं अर्थात् खरीफ की फसल को स्याळू कहते हैं। स्याळू  की साख में मक्की, ज्वार, बाजरा की कटाई होती है।

सूड़: खेत को बोने से पहले उसकी सफाई की जाती है, उसे सूड़ कहते हैं।

चारा भण्डारण के लिये काम में आने वाले शब्द

कराई

चारा भण्डारण के लिये खुले स्थान में कराई बनाई जाती है। इसके लिये 8 से 15 फीट के व्यास के घेरे में 50-60 तगारी राख बिछाकर थळा बनाते हैं। कराई के चारों ओर अंदर की तरफ एक-एक फुट पाई का बाटा लगाते हैं। बोरड़ी के कांटों की बींट गुंथली को गोल घेरे में रखकर बेवली चौकनी से कूटते हैं।

जब यह बींट 3-4 फुट की बन जाती है, इसमें बोरड़ी के पत्ते अलग कर देते हैं। बींटे को आधा काटा जाता है, चंद्राकार बींटे के राख वाले गोल घेरे के चारों ओर भीतर की तरफ एक-एक फुट में लगाते हैं। इसे पाई का बाटा लगाना कहते हैं। बाटे के अंदर खाली जगह में बाजरे का डूर भर दिया जाता है।

इसके ऊपर धामण, भूरट, बेकरिया, मूंग और ग्वार का गुणा के बाटे बनाते हैं। एक-एक फुट का बाटा लगाते हैं तथा बीच के रिक्त स्थान में बाजरे के डोकों को काटकर डालते जाते हैं। मूंग-मोठ की पानड़ी(पत्ते), ग्वार की ग्वारटी या फलगटी डालकर खूंदते जाते हैं। दस फुट बाद कांकड़ी बनाई जाती है। इसे पेट निकालना भी कहते हैं।

अंत में कराई को छाजते हैं। कराई की ऊँचाई 12 से 25 फीट होती है। जब अनाज अत्यधिक पैदा होता है तो उसे कणारा या कोठी में नहीं रखा जा सकता। ऐसी स्थिति में चारे की कराई में चारे के साथ सिट्टे भी रख दिये जाते हैं।

पचावा

पचावा में डोकों को बिना कुतर के रखा जाता है। इसमें मिट्टी या ईंटों की थर पंक्तिबद्ध तरीके में दी जाती है। दो पंक्तियों के बीच स्थान छोड़ा जाता है। थर के ऊपर अरणी के डोकों की नाथ देकर इसे मिट्टी से भर दिया जाता है। उसके बाद डोकों की थई दी जाती है। कराई झौंपड़ी के आकार में होती है जबकि पचावा चौकोर आकार में होता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि राजस्थान में भूमि वन एवं कृषि की विशिष्ट प्रकार की शब्दावली प्रयुक्त होती है।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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