जोधपुर की महारानी जो कभी दुर्ग से बाहर नहीं निकली! यह बात सुनने में विचित्र एवं अविश्वसनीय लगती है किंतु राजपूताने के इतिहास की एक सच्चाई है।
अब तो राजे-रजवाड़े तथा रियासतें नहीं रहीं किंतु उनके इतिहास में ऐसी बहुत सी रोचक और विस्मयकारी ऐतिहासिक घटनाएं हैं जो हमें गहरे आश्चर्य में डाल देती हैं। ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना जोधपुर राजवंश से जुड़ी हुई है।
रियासती भारत की पांच सौ साल पुरानी तथा भारत की तीसरी सबसे बड़ी रियासत मारवाड़ की राजधानी जोधपुर परम्पराओं और मर्यादाओं की नगरी।
यहां एक ऐसी महारानी भी हुई है जो जोधपुर के भावी राजा की तलवार के साथ विवाह करके जोधपुर आई तथा अपने जीवन काल में केवल एक बार अपने पीहर जाने के लिए जोधपुर दुर्ग से निकली।
इस रानी का नाम था राजकंवर। वह जामनगर रियासत के राजा जाम वीभा की पुत्री थी। नौ साल की आयु में ई.1854 में उसका विवाह जोधपुर के ज्येष्ठ राजकुमार जसवंतसिंह की तलवार से हुआ। विवाह की कुछ रस्में बाद में जालोर में पूरी की गईं।
विवाह के बाद राजकंवर जामनगर से जोधपुर आई और कुछ दिनों बाद जामनगर लौट गई। 13 साल की आयु में मुकलावा करके उसे पुनः जोधपुर लाया गया। इसके बाद वह जीवन भर जोधपुर दुर्ग से बाहर नहीं निकली।
वह धार्मिक प्रवृत्ति की रानी थी। उसके दहेज में जामनगर के राजा जाम वीभा ने कई पुजारी तथा कामदार भेजे थे। रानी प्रति वर्ष सवा लाख तुलसी दल अभिषेक के लिये द्वारिका भिजवाया करती थी।
पुजारी जगजीवन तथा कामदार हरिशंकर, तुलसी दल लेकर प्रतिवर्ष द्वारिका जाते। आने-जाने में तीन माह का समय लगता था।
जब रानी वृद्धावस्था को प्राप्त हुई तो उसने जोधपुर नगर के परकोटे से बाहर बाईजी के तालाब के निकट एक ऊंचे टीले पर रणछोड़जी का यह मन्दिर बनवाया। रानी राजकंवर के नाम पर रणछोड़जी के आगे राज शब्द लगाकर मन्दिर का नाम ‘राज रणछोड़जी का मन्दिर’ रखा गया।
उस समय तक जोधपुर नरेश जसवन्तसिंह (द्वितीय) की मृत्यु हो चुकी थी इसलिए मंदिर निर्माण पर रानी जाड़ेची राजकंवर ने स्वयं अपने पास से एक लाख रुपये व्यय किए।
मंदिर ई.1905 में बनकर तैयार हुआ। मंदिर के निर्माण में लाल बलुआ पत्थर काम में लिया गया है। मन्दिर में भगवान रणछोड़ की काले पत्थर की प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा का निर्माण, द्वारिका के पुजारियों की सलाह से करवाया गया था। मन्दिर बाहर और भीतर से भव्य दिखाई देता है।
यह मंदिर जोधपुर रेल्वे स्टेशन के ठीक सामने स्थित है। रानी स्वयं कभी इस मन्दिर में नहीं आई। रानी की सुविधा के लिए इस मंदिर को धरती से लगभग 30 फुट ऊँचे धरातल पर बनाया गया ताकि रानी अपने दुर्ग से ही संध्या काल में मंदिर की आरती की ज्योति के दर्शन कर सके।
मन्दिर के पुजारी संध्या काल में आरती की ज्योति, मंदिर के पीछे के दरवाजे पर ले आते। ठीक उसी समय रानी राजकवंर भी इस मंदिर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित मेहरानगढ़ की प्राचीर पर आ खड़ी होती जहाँ से रानी आरती के दर्शन करती।
राजाओं और रानियों का युग बीत गया किंतु यह मंदिर आज भी उस धर्मनिष्ठ महारानी का स्मरण करता हुआ जोधपुर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने मौजूद है।
मन्दिर के पास ही रानी ने स्वर्गीय महाराजा की स्मृति में जोधपुर आने वाले यात्रियों की सुविधा के लिये एक सराय का निर्माण करवाया जो जसवंत सराय के नाम से जानी जाती है।
उस काल में जोधपुर रेल्वे स्टेशन स्थापित हो चुका था किन्तु रात्रि होते ही नगर के समस्त द्वार बन्द हो जाते थे और बाहर से आने वाले यात्रियों को बड़ी कठिनाई होती थी। इस सराय के बन जाने से यात्रियों को बड़ी सुविधा हो गयी।
-डॉ.मोहनलाल गुप्ता