उदयपुर संभाग मूलतः पहाड़ी एवं जंगली क्षेत्र है। इस कारण उदयपुर संभाग में बड़ी संख्या में आदिवासियों का अधिवास है। उदयपुर संभाग के आदिवासी अपनी विशिष्ट संस्कृति रखते हैं।
उदयपुर संभाग के आदिवासी – गरासिया
गरासिया उदयपुर संभाग के आदिवासी क्षेत्र का बड़ा हिस्सा हैं। इतना ही नहीं गरासिया राजस्थान की प्रमुख जनजाति है। इसकी उत्पत्ति राजपूतों तथा भीलों के मेल से मानी जाती है।
कर्नल टॉड के अनुसार मेवाड़ में दो प्रकार के गरासिया होते हैं- पहले गरासिया ठाकुर या जमींदार और दूसरे भूमिया। गरासिया वे कहलाये जिनके पास भूमि के पट्टे राजकुमार द्वारा स्वीकृत किये गये थे।
इनके गांव बिखरे हुए होते हैं। इनके गांवों को पाल अथवा फला कहते हैं। एक गांव में एक ही गोत्र एवं अटक के गरायिसा परिवार रहते हैं। प्रत्येक गांव का एक संस्थापक होता है। इस वंश का व्यक्ति गांव का मुखिया होता है। ये लोग प्रायः गुड़, तेल, नमक, वस्त्र, चाय, कांच, कंघा बीड़ी आदि वस्तुओं का प्रयोग करते हैं।
गरासिया परिवार मुख्यतः सिरोही एवं उदयपुर जिले में निवास करते हैं। इनमें संयुक्त परिवार बहुत कम पाये जाते हैं। इनकी बोली भीलों से मिलती है जिसमें गुजराती भाषा के शब्द अधिक होते हैं।
एक ही गोत्र के स्त्री-पुरुष भाई-बहिन कहलाते हैं। एक परिवार के भाई बहिन का विवाह दूसरे परिवार के भाई बहिन के साथ किया जाता है जिसे आटा साटा कहते हैं। विधवा भाभी का देवर से विवाह करते हैं। नाता भी प्रचलित है।
गोत्र
आबू के निकटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले गरासियों में परमार, बूबरिया, चौहान तथा मदारिया आदि गोत्र पाये जाते हैं।
घर
भीलों एवं गरासियों के घर पहाड़ियों की उन ढलानों पर पाये जाते हैं जहां पानी के झरने तथा खेती के लिये कुछ भूमि हो। इनके घरों में एक खुला बरामदा होता है तथा आग में पकी हुई मिट्टी की टायलों अर्थात् केलू से ढंकी हुई छतों वाले कक्ष होते हैं।
इन टायलों को टिकाये रखने के लिये धव की लकड़ी एवं बांसों का प्रयोग किया जाता है। उनके पास बैलों की जोड़ी, गाय तथा बकरियां होती हैं। आधुनिक काल में वे पानी लेने के लिये निकटवर्ती कुएं या हैण्ड पम्प पर जाते हैं तथा जीवन को गरासिया समाज द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार व्यतीत करते हैं।
शारीरिक बनावट एवं मनोवृत्ति
गरासिया स्त्री-पुरुष सामान्यतः पतली एवं छोटी काया वाले होते हैं। भीलों की अपेक्षा गरासियों का रंग गोरा होता है। गरासियों का शरीर अधिक संतुलित होता है। गरासिया औरतें कद में अधिक छोटी एवं गोरे रंग की होती हैं। उनका चेहरा बाहर की तरफ उभरा हुआ होता है।
भीलों की औरतों की बनावट भी लगभग गरासिया औरतों जैसी होती हैं किंतु भील महिलाओं की अपेक्षा गरासिया महिलाएं गोरी होती हैं। दोनों ही जनजातियों की महिलाएं अत्यधिक परिश्रमी होती हैं।
स्वभाव
स्वभाव की दृष्टि से गरासिया महिलाएं अधिक शर्मीली, ईमानदार एवं परिश्रमी होती हैं। गरासियों का स्वभाव अत्यंत सकारात्मक होता है। वे अधिक आत्मविश्वासी भी होते हैं। गरासिया लोग अधिक सहयोगी स्वभाव के होते हैं तथा शांति एवं प्रेम से रहना पसंद करते हैं।
रीति रिवाज
भीलों एवं गरासियों के रीति रिवाज बहुत सरल हैं तथा बहुत से रीति रिवाज एक जैसे हैं।
गरासिया पुरुषों के वस्त्राभूषण
गरासिया पुरुष धोती बांधते हैं तथा कुर्ता पहनते हैं जिसे झुल्की कहा जाता है। गरासिया पुरुष सिर पर पगड़ी बांधते हैं जिसे फेंटा कहा जाता है। इस फेंटे पर फूलों की कलंगी अथवा छोटी टहनी बांधी जाती है। वे अपनी कमर में तलवार अथवा कटार बांधते हैं।
गरासिया पुरुष हर समय अपने साथ कंघा एवं दर्पण रखना पसंद करते हैं। वे हाथों में नाताली, पैरों में पगला, गले में हंसली तथा कानों में झेला अथवा पीतल की मुरकी पहनते हैं। वे अपने कानों में चांदी की मुरकी नहीं पहनते जबकि पैरों में चांदी की बेड़ी अथवा लूंगर पहनी जाती है।
गरासिया स्त्रियों के वस्त्राभूषण
गरासिया औरतें लाल घाघरे पहनती हैं तथा ऊपर के शरीर को ढंकने के लिये पुरुषों की तरह झुल्की पहनती हैं। वे रंग-बिरंगी ओढ़नियों का प्रयोग करती हैं। अविवाहित गरासिया लड़कियां अपने हाथों में लाल, पीली एवं गहरे रंग की चूड़ियां पहनती हैं।
विवाह के बाद औरतें हाथी दांत की चूड़ियां पहनती हैं जो उनके सुहागिन होने की प्रतीक हैं। वे माथे पर बोर बांधती हैं तथा कानों में चांदी से बनी हुई झाब अथवा दोरन पहनती हैं। कुछ औरतें कानों पर घास से बनी हुई पीर पोलिस धारण करती हैं। गरासिया औरतें गले में चांदी की बारली, बालों में दमनी (झाल) तथा नाक में कोता (नथ) पहनती हैं।
वे हाथों में विभिन्न धातुओं से बनी गुजरी धारण करती हैं तथा पैरों में चांदी अथवा जस्ते के बने हुए कड़ले पहनती हैं। वे चांदी एवं पीतल की अंगूठियां भी पहनती हैं। वे अपने केशों को कंघों से संवारती हैं तथा विभिनन मुद्राओं में बांधती हैं जिससे वे अलग से ही पहचानी जा सकती हैं।
वे इन बालों में चांदी के बने झुमके तथा मोती गूंथती हैं। वे माथे के अगले भाग पर सिंदूर लगाती हैं तथा आंखों में सुरमा धारण करती हैं।
टैटू की प्रथा
गरासिया तथा भील दोनों ही जनजातियों की महिलाओं में अपने शरीर के विभिन्न अंगों पर टैटू गुदवाने की विचित्र प्रथा होती है। ये टैटू आंखों की भौंहों, गर्दन, ठोड़ी एवं हाथों के साथ-साथ शरीर के दिखाई देने वाले समस्त अंगों पर गुदवाये जाते हैं।
टैटू के रूप में फूलों, चिड़ियों तथा पत्तियों की आकृतियां के साथ-साथ महिला का स्वयं का नाम गुदवाया जाता है। कुछ औरतें अपनी ठोड़ी एवं गालों पर कृत्रिम तिल बनवाती हैं। पुरुष भी टैटू गुदवाते हैं किंतु उनके टैटू केवल हाथों पर गुदवाये जाते हैं।
खानपान
भीलों एवं गरासियों का मुख्य भोजन मक्का है। विशेष अवसरों पर तथा अतिथि के आने पर गेहूं भी प्रयुक्त किया जाता है। कुरा, कोदरा, बट्टी, सांगली कोरांग आदि भी खाद्य के रूप में प्रयुक्त होते हैं। मक्का की रोटियों को सोगरा कहा जाता है, वे चटनी, हरी मिर्च तथा नमक के साथ खाई जाती हैं।
दही की लस्सी भी प्रयुक्त होती है। जंगलों में पाये जाने वाले फल भी उनके भोजन का मुख्य हिस्सा होते हैं। गरासिया लोग अतिथि सत्कार को बहुत महत्व देते हैं। मिठाई के रूप में लापसी परोसी जाती है। विशेष अवसर पर गेहूं को उबाल कर घूगरी तथा भुने हुए गेहूं में घी एवं चीनी मिलाकर चूरमा बनाया जाता है।
भील एवं गरासियां दोनों जनजातियां मांसाहारी हैं। वे बकरी, मुर्गी, सूअर, खरगोश आदि का मांस खाते हैं। भील लोग भैंसों तथा मोरों का मांस भी खाते हैं जबकि गरासियों में गाय, भैंस तथा मोर का मांस नहीं खाते।
दोनों ही जनजातियों में खाटिया नामक स्थानीय शराब बनाई और सेवन की जाती है। यह शराब चोरी-छिपे महुआ के फलों से बनाई जाती है जिसे महूड़ा कहा जाता है। दोनों जनजातियों में तम्बाखू सेवन का अत्यधिक प्रचलन है।
आय के साधन
भीलों एवं गरासियों में आय का मुख्य स्रोत कृषि एवं पशुपालन है। वे मुर्गीपालन भी करते हैं तथा मजदूरी करने के लिये आसपास के कस्बों एवं गांवों में जाने लगे हैं। उन्हें खेती के उपकरणों के निर्माण एवं मरम्मत का काम बहुत अच्छी तरह आता है। वे जंगलों से गोंद, आयुर्वेदिक औषधियां तथा शहद एकत्रित करके बाजार में बेचते हैं।
आदिवासियों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है इस कारा वे कभी-कभी डकैती एवं चोरी करते हुए भी पकड़े जाते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत छोटे-छोटे भूखण्डों पर कृषि होती है, वह भी पीढ़ी दर पीढ़ी बंटने से अत्यंत छोटी हो गई है। इसलिये लगभग हर परिवार पर ऋण का बोझ है।
इनमें आज भी वस्तु विनिमय की प्रथा प्रचलित है। इस कारण व्यापारी उन्हें प्रायः मूर्ख बनाकर उनकी महंगी चीजों को अपनी सस्ती चीजों से विनिमय कर लेते हैं। दोनों ही जनजातियों में दावत करने, जाति बाहर करने, शराब पीने जैसी बुराइयां व्याप्त हैं जिनके कारण उन पर ऋण का बोझ बढ़ता चला जाता है।
गरासियों के नृत्य
वनवासियों के नृत्यों में शृंगार रस की प्रधानता होती है तथा इनमें खुलापन अधिक होता है। इनके लोकनृत्यों में कामुकता अधिक होती है तथा कामुक संकेतों के साथ-साथ अंग प्रदर्शन पर भी जोर दिया जाता है।
गरासियों के वालर नृत्य, लूर नृत्य, कूद नृत्य, घूमर तथा मांदल नृत्य रंग-बिरंगी छटा बिखेरते हैं।
वालर नृत्य
यह गरासियों का नृत्य है। गणगौर त्यौहार के दिनों में गरासिया स्त्री-पुरुष अर्द्धवृत्ताकार में धीमी गति से बिना किसी वाद्य के नृत्य करते हैं। यह नृत्य डूंगरपुर, उदयपुर, पाली व सिरोही क्षेत्रों में प्रचलित है।
उदयपुर संभाग के आदिवासी – भील
उदयपुर संभाग के आदिवासी क्षेत्र का दूसरा प्रमुख आदिवासी समुदाय है। यह जाति पूरे राजस्थान में पाई जाती है। भील शब्द का प्रयोग तमिल भाषा में ‘बिल्लुवर’ के रूप में हुआ है जिसका अर्थ है- धनुर्धारी। भील अपने को महादेव शिव का वंशज मानते हैं। ये स्वभाव से भोले परंतु वीर, अति साहसी एवं निडर होते हैं। इनमें स्वामि भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी होती है।
ये पहाड़ियों पर बीस-पच्चीस घरों के छोटे-छोटे गाँव बसा कर रहते हैं जिन्हें ‘फला‘ कहते हैं। फला से बड़े गाँवों को ‘पाल’ कहते हैं। पाल का नेता ग्रामपति या मुखिया कहलाता है जो सामाजिक, आर्थिक एवं व्यक्तिगत झगड़ों को निबटाता है। मुखिया का सर्वाधिक सम्मान होता है। भील जाति में सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना बहुत प्रबल होती है।
यदि किसी व्यक्ति ने किसी भील पर आक्रमण किया या चोट पहुँचायी तो ये सम्पूर्ण गाँव पर आक्रमण समझते हैं और तदनुसार प्रतिरोध करते हैं। इस कार्य के लिये वे अपनी जान तक गंवाने की भी परवाह नहीं करते हैं। भीलों के गाँव के मुखिया को गमेती भी कहते हैं। राजस्थान के आदिवासियों में गमेती नाम की एक जनजाति भी पाई जाती है।
गोत्र
भीलों में कई जातियां, कुटुम्ब एवं उपजातियां पाई जाती हैं जिन्हें गोत्र कहा जाता है।
वैवाहिक सम्बन्ध
भील आदिवासी प्रायः पृथक गाँव वालों से अपना रिश्ता जोड़ते हैं और उन्हें अपनाते हैं। कभी-कभी इनमें चचेरे एवं ममेरे भाई-बहिन का विवाह होता है जिसे बुरा नहीं माना जाता है। पत्नी की मृत्यु हो जाने पर प्रायः उसी की छोटी बहिन से (यदि हो तो) विवाह कर लिया जाता है। देवर भोजाई के विवाह का भी प्रचलन है।
खानपान
मक्का, चावल और गेहूं भीलों का प्रमुख भोजन है। ये लोग मक्का अधिक चाव से खाते हैं। दूध, मछली एवं मांस भी इनका प्रिय भोजन है। शराब पीना अधिक पसंद करते हैं। सारे दिन की कमाई का अधिकांश भाग शराब पीने में खर्च करते हैं। ये निर्धनता में जीते हैं।
आय के साधन
कृषि करना, लकड़ी बेचना तथा मजदूरी करना इनका मुख्य धंधा है। मौसम के अनुसार जंगलों से गोंद, कंदमूल आदि एकत्र कर उसे कस्बों और शहरों में लाकर बेचते हैं।
रीति रिवाज एवं त्यौहार
भील समुदाय के लोग परम्परागत त्यौहार, मेले और जलसों में बड़े चाव से मिलते हैं। तब इन्हें देखकर इनका जीवन दर्शन समझ में आता है जिससे अत्यधिक रोमांच होता है। रंग-बिरंगे परिधानों में सजे-संवरे, नाचते-गाते भीलों को देखकर दर्शक को आदिम संस्कृति की झलक के दर्शन होते हैं।
शारीरिक बनावट एवं मनोवृत्ति
भील सामान्यतः पतली एवं छोटी काया वाले होते हैं। भीलों एवं गरासियों की शारीरिक बनावट में थोड़ा अंतर होता है। गरासियों की अपेक्षा भीलों का रंग अधिक काला होता है। भीलों के चेहरे अधिक लम्बे होते हैं। उनकी नाक छोटी, गाल धंसे हुए एवं आंखें मटमैली होती हैं।
भीलों की औरतों की बनावट भी लगभग गरासिया औरतों जैसी होती हैं किंतु भील महिलाओं का रंग गरासिया महिलाओं की अपेक्षा अधिक पक्का होता है भील महिलाएं अत्यधिक परिश्रमी होती हैं।
स्वभाव
आबू के भील, गरासियों की अपेक्षा अधिक उग्र होते हैं तथा भीलों के मन में बदले की भावना अधिक होती है।
मध्यकाल में भीलों में चोरी की भी बुरी आदत पाई जाती थी। ये अधिक वीर एवं साहसी होते हैं। साथ ही स्वामिभक्ति के लिये अधिक प्रसिद्ध हैं।
भीलों के नृत्य
भीलों के तीन नृत्य प्रमुख हैं-
गवरी नृत्य
यह भीलों का सामाजिक एवं धार्मिक नृत्य है। डूंगरपुर-बांसवाड़ा, उदयपुर, भीलवाड़ा एवं सिरोही आदि क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है। यह गौरी पूजा से सम्बद्ध होने के कारण गवरी कहलाता है। इसमें नतृक नाट्य कलाकारों की भांति अपनी साज-सज्जा करते हैं। यह भगवान शिव एवं पार्वती को समर्पित नृत्य है। उदयपुर संभाग के आदिवासी गवरी महोत्सव का आयेाजन करते हैं जिसमें यह नृत्य किया जाता है। नृत्य के साथ-साथ यह एक लोकनाट्य परम्परा भी है।
नेजा नृत्य
यह नृत्य होली के तीसरे दिन भील स्त्री-पुरुषों द्वारा युगल रूप में किया जाता है। पाली, सिरोही, उदयपुर एवं डूंगरपुर आदि जिलों में यह अधिक प्रचलित है।
युद्ध नृत्य
इस नृत्य में भील जाति के पुरुष हाथ में तलवार लेकर युद्ध कला का प्रदर्शन करते हैं।
इस प्रकार उदयपुर संभाग के आदिवासी अपनी विशिष्ट संस्कृति रखते हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता