Saturday, July 27, 2024
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19. राजकुमारी चंद्रावल, नौलखा हार और पारस पत्थर के लिए राजा पृथ्वीराज चौहान ने चंदेलों पर आक्रमण किया!

पिछली कड़ी में हमने विभिन्न इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत मतों एवं शिलालेखों के आधार पर चौहान-चंदेल संघर्ष की चर्चा की थी। इस कड़ी में हम आल्हखण्ड के आधार पर चौहान-चंदेल संघर्ष की चर्चा करेंगे जिसे परमाल रासो भी कहा जाता है।

इस ग्रंथ के अनुसार दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने राजा परमारदी देव की राजकुमारी चंद्रावल, नौलखा हार एवं पारस मणि लेने के लिए चंदेल राजा परमाल देव के राज्य महोबा पर चढ़ाई की।

इस ग्रंथ में आई कथा के अनुसार श्रावण की पूर्णिमा के दिन अर्थात् रक्षाबंधन के पर्व वाले दिन राजकुमारी चंद्रावल अपनी सखियों के साथ कीरत सागर में कजली दफन करने पहुंची, तभी पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण कर दिया।

राजकुमारी चंद्रावल ने अपनी सहेलियों के साथ पृथ्वीराज की सेना से युद्ध किया। इस युद्ध में राजा परमाल का पुत्र राजकुमार अभई वीरगति को प्राप्त हुआ। पृथ्वीराज चौहान ने राजा परमाल को संदेश भिजवाया कि यदि वह युद्ध से बचना चाहता है तो राजकुमारी चंद्रावल, पारस पत्थर और नौलखा हार राजा पृथ्वीराज को सौंप दे!

राजा परमाल ने पृथ्वीराज की इस मांग को अस्वीकार कर दिया। इस कारण कीरत सागर के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच जबर्दस्त युद्ध हुआ। इस कारण बुंदेलखंड की बेटियां उस दिन कजली दफन नहीं कर सकीं।

पृथ्वीराज के आक्रमण की सूचना कन्नौज में निवास कर रहे आल्हा और ऊदल तथा कन्नौज के राजा लाखन तक भी पहुंची। ये सभी योद्धा साधुओं का वेश धरकर कीरत सागर के मैदान में पहुंचे। दोनों पक्षों में भयानक युद्ध छिड़ गया।

इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-

बैरागढ़ के मैदान में पृथ्वीराज के सेनापति चामुंडराय, जिसे आल्हखंड में चौड़ा कहा गया है, ने धोखे से ऊदल की हत्या कर दी। ऊदल की हत्या के बाद चौहान योद्धा बड़ी तेजी से चंदेल सेना को मारने लगे।

जब आल्हा को अपने छोटे भाई ऊदल के वीरगति को प्राप्त होेने की सूचना मिली तो वह अपना आपा खो बैठा और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर टूट पड़ा। आल्हा के सामने जो भी आया मारा गया।

आल्ह-खण्ड के अनुसार राजा पृथ्वीराज चौहान के दो पुत्र इस युद्ध में मारे गए। एक घंटे के घनघोर युद्ध के बाद राजा पृथ्वीराज और वीर आल्हा आमने-सामने हो गए। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में राजा पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुआ।

आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया और आल्हा ने युद्ध त्यागकर नाथ पंथ स्वीकार कर लिया।

युद्ध के कारण बुंदेलखंड की लड़कियां रक्षाबंधन के दूसरे दिन कजली दफन कर सकीं। आज सैंकड़ों साल बीत जाने के बाद भी आल्हा-ऊदल की विजय के उपलक्ष्य में प्रति वर्ष कीरत सागर मैदान में कजली मेला भरता है। इस दिन महोबा के लोग विजय-उत्सव मनाते हैं। इस कारण महोबा क्षेत्र में रक्षाबंधन का पर्व दूसरे दिन मनाया जाता है।

इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले योद्धा ऊदल की स्मृति में महोबा में एक चौक का नाम ऊदल-चौक रखा गया है। ऊदल के सम्मान में आज भी लोग इस चौक में घोड़े पर सवार होकर नहीं जाते हैं।

जेम्स ग्रांट नामक एक अंग्रेज ने लिखा है- ‘एक बार एक बारात जा रही थी और दूल्हा घोड़े पर बैठा था। जैसे ही बारात ऊदल चौक पर पहुंची, घोड़ा भड़क गया और उसने दूल्हे को पटक दिया। मैं परंपरागत रूप से सुनता आया हूँ कि ऊदल चौक पर कोई घोड़े पर बैठकर नहीं जा सकता और आज मैंने उसे प्रत्यक्ष रूप से देख भी लिया।’

आल्हा-ऊदल के नाम पर महोबा शहर में एक चौक में आल्हा-ऊदल की विशाल प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। आल्हा अपने वाहन गज पशचावद पर सवार हैं जबकि ऊदल अपने उड़न घोड़े बेदुला पर सवार हैं। ये दोनों प्रतिमाएं भीमकाय और जीवंत हैं। इन्हें देखने लोग दूर-दूर से आते हैं।

कीरत सागर के किनारे आल्हा की चौकी है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ आल्हा के सैनिक रहा करते थे। मदन सागर में आल्हा के पुत्र इंदल की चौकी बताई जाती है। आल्हखंड के अनुसार इंदल भी अपने पिता आल्हा की तरह अमर हुआ। जब गुरु गोरखनाथ ने यह देखा कि आल्हा अपने दिव्य अस्त्रों से पृथ्वीराज का वध कर देगा तो वे इंदल को लेकर कदली वन चले आए। इस कदली वन की पहचान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उत्तराखंड के तराई क्षेत्र से की है।

आल्ह-खण्ड के बहुत से वर्णन अतिश्योक्ति-पूर्ण हैं। लड़ाइयों में कहीं-कहीं केवल पात्रों के नाम बदल जाते हैं। शेष घटनाएँ वही रहती हैं। भौगोलिक जानकारियां गलत हैं। कुछ नगरों और गढ़ों के नाम काल्पनिक हैं। एक-एक लड़ाई में लाखों सैनिकों के मारे जाने का उल्लेख है। पशु-पक्षी भी आल्हा-ऊदल द्वारा लड़ी गई लड़ाइयों में साधक या बाधक होते दर्शाए गए हैं। इस ग्रंथ में उड़ने वाले बछेड़े हैं, चमत्कृत करने वाली शक्तियां रखने वाली जादूगरनियाँ और बिड़िनियाँ हैं। कबंध अर्थात् सिर रहित धड़ युद्ध करते हुए दर्शाए गए हैं।

स्थान-भेद और बोली के साथ आल्हखण्ड के पात्र भी बदल जाते हैं। कन्नौजी तथा भोजपुरी पाठ में आल्हा का विवाह नैनागढ़ की राजकुमारी सोनवती अर्थात् सुनवा से हुआ है जबकि पश्चिमी हिंदी पाठ में हरिद्वार के राघोमच्छ की पुत्री माच्छिल उसकी पत्नी थी।

अगली कड़ी में देखिए- सम्राट पृथ्वीराज चौहान से लड़ते हुए अमर हो गए आल्हा-ऊदल!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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